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डाँटने की किसी की इच्छा ही नहीं होती थी। कुछ हद तक इसी लाड़-प्यार में आरंभिक पढ़ाई की शुरूआत भी देर से हुई । पिताजी के स्थानान्तर से भी कुछ कठिनाइयाँ आयीं ।
पढ़ाई तो एक दिन शुरू होनी ही थी । सुरेन्द्र का पहला विद्यालय था दानवाड ग्राम का मराठी प्राथमिक विद्यालय ! गाँव में अधिकतर लोग जैन थे । पुजारी होने के नाते परिवार का निवास मन्दिर में ही था और मन्दिर सदा साधु-संतों का केन्द्र बना रहता था । बालक सुरेन्द्र पर भी उस वातावरण का प्रभाव पड़ा । धर्म-सभा, कथा पुराण, भजन-कीर्तन सदा ही होते । बालक सुरेन्द्र संगीत में रुचि लेने लगे ।
सुरेन्द्र ५-६ वर्ष के होंगे तभी की यह बात है । चातुर्मास में एक दिगम्बर मुनि मन्दिर में ठहरे थे । सुरेन्द्र सदा उनके पास रहते और सेवा का अवसर ढूंढ़ते । मुनिजी के लिए गरम पानी ले जाते । इतने छोटे बालक की इतनी लगन देखकर मुनिजी उन्हें आशीर्वाद देते और बड़े स्नेह से उन्हें पिच्छि से छूते । पिच्छि से सुरेन्द्र को यों भी बड़ा प्रेम था । सदा पिच्छि के रंगीन पंख निहारते और देर तक उसे हाथ में लिये रहते । कहती, "इसके हाथ में पिच्छि ही है ।" कितने सही थे वे शब्द ! !
पिताश्री कालप्पा को सदा यही चिन्ता सालती रहती कि बार-बार तबादलों से बालक सुरेन्द्र की पढ़ाई का नुकसान न हो; अतः उन्होंने शेडवाल गाँव में सरकारी कानड़ी विद्यालय में बालक को भरती करवा दिया | मराठी विद्यालय से कानड़ी विद्यालय में आने के कारण सुरेन्द्र का मन उसमें नहीं लगा। खेलने का शौक तो था ही खिलाड़ी साथी भी मिल गये । डाँटने वाला कोई था नहीं, इसलिए पढ़ाई-लिखाई की बजाय घूमने-फिरने में ही समय बीतने लगा । आखिर एक दिन इसका समाधान ढूँढ़ना ही था और वह हुआ " श्री शान्तिसागर छात्रावास" में सुरेन्द्र का प्रवेश !
शेडवाल के “शान्तिसागर छात्रावास" में पढ़ाई का माध्यम मराठी होने के कारण सुरेन्द्र का मन वहाँ लग गया । दस वर्ष के सुरेन्द्र आश्रम के कार्यक्रमों में रुचि - पूर्वक भाग लेने लगे । काम कोई भी हो -- झाडू लगाना, या फूल तोड़ना; मन्दिर के बर्तन माँजना या चन्दन घिसना; सुरेन्द्र सदा अगुआई करते । बागवानी का उन्हें बहुत शौक था । बड़ी मेहनत से क्यारी तैयार की, उसमें बीज डाले, पानी दिया, खाद दिया । औरों की क्यारियों के पौधे बढ़ने लगे, मगर इस क्यारी के पौधे बढ़ते ही नहीं थे । सब लोग हैरान थे। आखिर पता चला कि सुरेन्द्र छोटे-छोटे अंकुरों को उखाड़ - उखाड़ कर देखते कि वे कितने बढ़ रहे हैं ! इसीसे उनकी अनुसंधानात्मक वृत्ति का सहज परिचय मिल गया ।
बचपन से ही सुरेन्द्र में अनेक गुण प्रकट होने लगे । छोटे साथियों की मदद करना, बीमारों की सेवा करना, दीन-दुखियों को ढाढ़स बंधाना, ये काम वे सदा करते । एक
तीर्थंकर / अप्रैल १९७४
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