Book Title: Tirthankar 1974 04 Author(s): Nemichand Jain Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore View full book textPage 9
________________ णति भी नहीं है, वस्ततः वह आत्मा की निर्मल अवस्था का ही उद्रेक है। यदि आप स्वभाव में आ जाएँ तो ऐसी स्थिति में आत्मा का जो विकिरण (रेडिएशन) होगा वही विश्वधर्म की आधार-भूमियाँ तैयार करेगा। ___ मुनिश्री जिस परम्परा की सन्तति हैं, उसमें अन्धविश्वासों और आडम्बरों के लिए कोई स्थान नहीं है । वहाँ जो जिया गया है, वही कहा गया है और आगे चलकर वही पूरी तरह उपलब्ध भी हुआ है। इस परम्परा में सिद्धान्त के साथ जीना ही महोपलब्धि है । आज जो अराजकता छायी हुई है वह सिद्धान्त के साथ न जीने के कारण है; यानी सिद्धान्त है, किन्तु उसके साथ जीने की कोई स्थिति नहीं है । वस्तुतः विधायक के लिए आज सिद्धान्त है ही नहीं; जब विधान या शास्त्र की यह अपंगावस्था थी तब महावीर उठे थे और उन्होंने शास्त्रकारों को इस द्वैत के लिए ललकारा था; अतः आत्मक्रान्ति ही मूल में समाज-क्रान्ति है, इस मर्म की खोज ही मुनिश्री की इक्यावनवीं सालगिरह है। मुनिश्री का जीवन सूरज की तरह का निष्काम और तेजोमय जीवन है । वे दृष्टा हैं, दृष्टि हैं; वे देखते हैं, और अन्यों को समग्रता में सामने खड़ी स्थिति को देखा जा सके इतना मांज देते हैं। सूरज उष:काल से सायंकाल तक अरुक यात्रा करता है। वह अपनी किरण-अंगलियों से छता-भर है, किन्तु यदि आप उसकी इस छहन से अस्पष्ट रह जाते हैं तो वह रोष नहीं करता.वह तो निष्काम अपनी राह निकल जाता है। ऐसे में भी उसके मन में न कोई आकुलता होती है और न कोई रोष; इसके विपरीत होता है दुगना उत्साह । इसी तरह धरती पर अरुक चलते रहना मुनिश्री का काम है । वे अपनी तीर्थयात्रा पर अविराम चल रहे हैं अंधेरे को अस्वीकारते और उजेले की अगवानी करते । जीवन के मध्याह्न में आज उनकी प्रखरता बराबर बढ़ती जाती है। उनकी कामना है कि लोग आगे आयें और प्रकाश को झेलने के लिए अपना व्यक्तित्व बनायें । मुनिश्री प्रकाश पर न्योछावर व्यक्ति हैं, उनका सारा जीवन आत्मानुसन्धान पर समर्पित है। वे जो भी लोककल्याण करते हैं, या उनसे होता है वह छाछ-मात्र है उनकी अखट-अविराम साधना की, असली नवनीत तो उनका आत्ममन्थन है जो लगभग उन तक ही सीमित है। हमें जो मिलता है वह मठा है, नवनीत जो उनके पास है, जो हमें मिल सकता है, अक्सर शब्दातीत ही होता है। इसलिए आज हम जो उनका उद्ग्रीव पग देख रहे हैं इक्यावनवें वर्ष की ओर, वह उनकी आत्मकल्याण-साधना का ही एक निष्काम अध्याय है। विश्वधर्म मनिश्री विद्यानन्दजी का कोई पृथक् प्रतिपादन नहीं है । वह भारतीय परम्परा में सदियों से आकार ग्रहण कर रहे विश्व-कल्याण का नव्यतम संस्करण है। तीर्थंकरों ने जिन तथ्यों को प्राणिमात्र की हितकामना से, जो उनके आत्मकल्याण की ऊर्जा का एक भाग थी, प्रकट किया था, विश्वधर्म उसी का रूपान्तर है। अतः इन स्वर्णिम क्षणों में हम चाहेंगे कि मुनिश्री के 'विश्वधर्म' को उसकी संपूर्ण गहराइयों में तलाशा जाए ताकि हम उसकी सूक्ष्मताओं को जान सकें । यदि हम थोड़ा प्रयास करें तो पायेंगे कि यह विश्वधर्म महावीर का प्राणतन्त्र ही है। महावीर ने तीर्थकरों की परम्परा में चलकर प्राण-मात्र का सम्मान करने की बात कही थी, वे जनतन्त्र नहीं प्राणतन्त्र के प्रतिपादक थे; उस प्राणतन्त्र के, जिसकी नींव में करुणा अपनी संपूर्ण प्रखरता के साथ धड़क रही है। मुनिश्री का ५१ वें वर्ष में प्रवेश इसी प्राणतन्त्र की वर्षग्रन्थि है । चूंकि यह तन्त्र अमर है, अनन्त है; अतः विद्यानन्दत्व भी उतना ही अमर है, अनादि है, अनन्त है । हम आत्मदीप की इस अकम्प-अखण्ड लौ को प्रणाम करते हैं !! तीर्थंकर / अप्रैल १९७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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