Book Title: Tirthankar 1974 04
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 8
________________ और उसका उसकी समग्र ऊर्जस्विता में इस्तेमाल करना चाहते हैं। प्रवचन में उनका विश्वास है, भाषण में नहीं; वे अपना कहा हुआ जीवन में ज्यों-का-त्यों घटित देखना चाहते हैं; यानी जो घटा चुकते हैं उसे ही वाणी पर लाते हैं। उनकी अनैकान्तिनी वाणी में भारत की विगत ढाई हजार वर्षों की चिन्तन-यात्रा की एक सार-पूर्ण झलक दिखायी देती है। उनके प्रवचनों में होने वाली भीड़ें उल्लेखनीय हैं, कोई भी वक्ता इतनी बड़ी भीड़ को पाकर उन्मादी हो सकता है; किन्तु मुनिश्री की वाग्मिता इसलिए महत्त्व की है कि वह भीड़ में भी उन्हें अकेला रखती है और अकेले में भी समुदाय के बीच रख सकती है। वे वाग्मीनिलिप्त-निष्काम सन्त हैं। दिगम्बरत्व की यही तो विशेषता है कि वह एकान्त में भी अनेकान्त की आराधना कर सकता है और अनेकान्त में भी एकान्त का अनुभव कर सकता है। वह बह्वर्थवादी होता है, किन्तु किसी एक अर्थ, या मुद्दे पर रुक जाने को वह सार्थक नहीं मानता । मुनिश्री शब्द की अपेक्षा उसके अर्थ और संदर्भ पर ध्यान रखते हैं, इसीलिए "एकान्त" "भीड़” “अनेकान्त” इत्यादि सारे शब्द उन्हें दिक्कत में नहीं डाल पाते । भला जो शब्द को परेशानी में डाल सकता हो, उसे शब्द परेशानी में कैसे डाल सकते हैं ? गहरी पेठ होने के कारण मुनिश्री हर स्थिति को अपने अनुरूप और हर स्थिति में यदि आवश्यक हुआ तो उसके अनुरूप होने-ढलने की क्षमता रखते हैं । उनकी वैचारिक सहिष्णुता उदाहरणीय है। एक अजीब बात है। यह जानते हुए भी कि विद्यानन्दजी जैन मुनि हैं सभी संप्रदाय, वर्ग और पेशे के लोग उनसे पूरी उन्मुक्तता के साथ मिलते हैं और जी-खोलकर विचार-विमर्श करते हैं । मुनिश्री भी प्रायः सबसे बिना किसी भेदभाव के स्थित्यतीत होकर मिलते हैं। यह नहीं कि उनसे मिलने या उनके दर्शन करने कोई एक प्रदेश या भाषा आती हो प्रायः सारा भूगोल और संस्कृतियाँ उनके दर्शनार्थ पहुँचती हैं । इसके पीछे उनके व्यक्तित्व का यही चुम्बक काम करता है कि वे रूढ़ या परम्परावादी नहीं हैं, स्वाभाविक हैं और हर आदमी को स्वाभाविक होने की सलाह देते हैं । स्वभाव ही धर्म है। इस वाक्य को मुनिश्री के जीवन में चरितार्थ देखा जा सकता है। ___ मुनिश्री की इस इक्यावनवीं सालगिरह को हम एक गुलदस्ते की सालगिरह कह सकते हैं। वे गल नहीं हैं, एक सम्मोहक गलदस्ते हैं, रंगबिरंगे फलों के स्तवक । अनेकान्त और गुलदस्ते में कोई फर्क नहीं है। दोनों वैविध्य को मानते हैं, और उसे एक ही बन्धन में समेटने की क्षमता रखते हैं। जिस तरह एक गुलदस्ता कई महकीले-सुरभीले रंगों और आकृतियों के फूलों को एक साथ लेकर अपने व्यक्तित्व की रचना करने में समर्थ है ठीक वही स्थिति मुनिश्री की है। वे वैविध्य की पर्याय-सत्ता को मानते हैं और अपनी अनैकान्तिनी प्रतिभा से उसे समायोजित रखते हैं । वे कई परस्पर-विरोधी शक्तियों और दृष्टिकोणों के समायोजन हैं, इसलिए हमने उनकी सालगिरह को एक स्तवक की वर्षग्रन्थि का संबोधन दिया है। हो सकता है कुछ लोगों को ऐसा लगे कि मुनिश्री विद्यानन्द सबको प्रसन्न रखने के लिए हर हमेश किसी फारमले की खोज में रहते हैं , और उनका विश्वधर्म इसी तरह का कोई फार्मला हो । यह उन लोगों का भ्रम है। सचाई यह है कि आप चाहे जो कीजिये, सब लोग प्रसन्न कभी हो ही नहीं सकते, और फिर मुनिश्री को ऐसी कौन-सी गरज है जो वे दुनिया भर के धर्मों को इकट्ठा करके अलग से कोई खिचड़ी पकायें। वे तो इस बात के उज्ज्वलतम प्रतीक हैं कि जब हम दुराग्रह से विरक्त हो जाते हैं और अपनी स्वाभाविक ऊर्जा में श्वास लेने लगते हैं तो जो धर्म करवट लेकर सामने आता है, वही विश्वधर्म है। विश्वधर्म कोई सम्मिश्रण नहीं है, वह समझौता भी नहीं है । वह कुछ इससे, और कुछ उससे' की परि मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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