Book Title: Tiloypannatti Part 3
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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गाथा: ६६ पंचमो महाहियारो
[ १९ अर्थ-नन्दा, नन्दवती, नन्दोत्तरा और नन्दिघोषा नामक ये वापिकायें पूर्वादिक दिशाओं में प्रदक्षिणा रूपसे अवस्थित हैं। ६२ ।।
__वापिकाओंके वन-खण्डोंका वर्णन वाधोरण असोय-वणं, सत्तच्छद-चंपयाणि विविहाणि ।
चूदवणं पत्तेक्कं, पुन्धादि - दिसासु चत्तारि ॥६३।।
अर्थ-उन वापिकाओंकी पूर्वादि चारों दिशाओंमेंसे प्रत्येक दिशामें क्रमशः अशोक बन, सप्तच्छद, चम्पक और आम्रवन हैं ।। ६३ ।।
जोयण-लक्खायामा, तदद्ध-वासा हवंति वण-संडा । पत्रकं लेत-नुमा, माणाम-नः मि एडाप ।।६४॥
१००००० । ५००००। प्रथ-ये वन-खण्ड, एक लाख ( १००००० ) योजन लम्बे और इससे अर्ध ( ५०००० योजन ) विस्तार सहित हैं । इनमेंसे प्रत्येक वनमें, वनके नामसे संयुक्त चैत्यवृक्ष हैं ।। ६४ ।।
दधिमुख नामक पर्वतोंका निरूपण । बायीणं यहु-मझ, दहिमुह-गामा हवंति दहियण्णा । एषकेका वर-गिरिणो, पक्कं अयुद-जोयणुच्छेहो ॥६५॥
अर्थ-वापियोंके बहु-मध्यभागमें दहीके सदृश वर्ण वाला एक-एक दधिमुख नामक उत्तम पर्वत है । प्रत्येक पर्वतकी ऊंचाई दस हजार ( १०००० ) योजन प्रमाण है ।। ६५ ।।
तम्मेत्त-वास-जुत्ता, सहस्स-गाढम्म बज्जमय बड्डा । ताडोबरिम-तडेसु, तड-वेदी-वर-क्षणाणि विविहाणि ॥६६॥
१०००० । १०००। अर्थ-उतने ( १०००० योजन ) प्रमाण विस्तार सहित उक्त पर्वत एक हजार (१०००) योजन गह्राईमें वज्रमय एवं गोल हैं। इनके तटोपर तट-वेदियाँ और विविध प्रकारके वन हैं ॥६६॥
रतिकर पर्वतोंका कथन वायीणं बाहिरए, दोसु कोणेसु दोण्णि पत्तेवकं । रतिकर-णामा गिरिणो, कणयमया वहिमुह-सरिच्छा ॥६७।।