Book Title: Tiloypannatti Part 3
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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गाथा । ६५-६९ ]
णमो महाहियारो
जो संकप्प-वियप्पो, तं कम्मं कुर्यादि असुह-सुह-जगणं ।
अप्पा सभाव लद्धी, जाव ण हियये परिफुरइ ||६||
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अर्थ- जब तक हृदय में आत्म-स्वभाव की उपलब्धि प्रकाशमान नहीं होती तब तक जीव संकल्प - विकल्परूप शुभ-अशुभको उत्पन्न करने वाला कर्म करता है ||६५॥
बंधाणं' च सहावं, विजाणिदु अप्परगो सहावं च । अंधे जो ण रज्जदि, सो कम्म' विमोषखणं कुणइ ।। ६६ ।।
अर्थ --- जो बन्धों के स्वभावको और आत्माके स्वभावको जानकर बन्धों में अनुरञ्जायमान नहीं होता है, वह कर्मोका मोक्ष (क्षय) करता है ।। ६६ ।।
जाव ण वैदि विसेसंतरं तु आदासवाण दोन्हं पि ।
अण्णाणी ताव दु सो, विसयादिसु वट्टते जीवो ॥ ६७ ॥
[ ६३३
अर्थ- जब तक जीव आत्मा और आस्रव इन दोनों के विशेष अन्तरको नहीं जानता सब तक वह अज्ञान विषयादिकों में प्रवृत्त रहता है ॥६७॥
विपरिणमदि* ण गेहबि, उप्पज्जबि ण परदव्य-पज्जाए ।
णामी जाणतो वि हु, पोग्गल - दव्वं" अलेय विहं ॥ ६६ ॥
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अर्थ- ज्ञानी जीव अनेक प्रकार के पुद्गल द्रव्यको जानता हुआ भी परद्रव्य-पर्याय से न परिणमता है, न ( उसे ) ग्रहण करता है और न ( उस रूप ) उत्पन्न होता है ॥ ६८ ॥
जो परदम्बं तु सुहं, असुहं या मण्णदे विमूढ-मई । सो मूढो अण्णाणी, बज्भदि बुद्ध कम्मेहिं ॥६६॥
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एवं भावणा समता ||५||
अर्थ- जो मूढ़-मति पर द्रव्यको शुभ अथवा अशुभ मानता है, वह मूढ़ अज्ञानी दुष्ट आठ कर्मो से अंधता है ।। ६९॥
इसप्रकार भावना समाप्त हुई ||५||
१. व. ब. क. ठ. बद्धाणं । २. द. व. क. उ. रंग । ३. द. ब. क. विसेसंभतरं । ४. द. ब. परणमदि । ५. ब. दव्वमणेय विहं 1