Book Title: Tiloypannatti Part 3
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 699
________________ गाथा । ५३-५८] णवमो महाहियारो [ ६३१ पडिकमणं पडिसरणं, पडिहरणं धारणा णियत्ती य । णिवण-गरहण सोही, लभंति णियाव-भावणए ॥५३॥ अर्थ-निजात्म-भावना से ( जीव ) प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, प्रतिहरण, धारणा, निवृत्ति, निन्दन, गर्हण और शुद्धिको प्राप्त करते हैं ।।५३11 जो णिहद-मोहनांठी, राय-पदोसे' हि खविय सामण्णे । होजं सम-सुह-बुक्स्यो , सो सोक्खं अक्षयं लहवि ॥५४॥ अर्थ-जो मोह रूप ग्रन्थिको नष्टकर श्रमण अवस्था में राग-द्वेष का क्षपण करता हुमा मुख-दुःख में समान हो जाता है, वह अश्मय सुखको प्राप्त करता है ।।५।। ण जहवि जो दु' ममत्तं, ग्रहं ममेदं ति देह-दविणेसु। सो मूढो अण्णाणी, बज्झवि युट्टव - कम्मेहि ॥५५॥ अर्थ-जो देह में 'अहम्' ( मैं पना ) और धन में 'ममेद' ( यह मेरा ) इस दो प्रकार के ममत्वको नहीं छोड़ता है, वह मूर्ख अज्ञानी दुष्ट कर्मों से बंधता है ।।५५।। पुण्णण होइ विहओ, विहवेण मओ' मएण मह-मोहो । मद - मोहेण य पाषं, तम्हा" पुण्णो विवज्जेज्जो ॥५६।। प्रथं-पुण्य से वैभव, वैभव से मद, मद से मति-मोह और मति-मोह से पाप होता है, अतः पुण्यको छोड़ना चाहिए ।५६।। __ परमद्र-बाहिरा जे, ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छति । संसार - गमण - हेदु, विमोक्ख - हेदु अयाणंता ॥५७।। अर्थ-जो परमार्थ से बाहर हैं वे संसार-गमन और मोक्षके हेतु को न जानते हुए अज्ञान रो पुण्यकी इच्छा करते हैं ।।५७।। ण हु मण्णवि जो एवं", गस्थि विसेसो ति पुण्ण-पावाणं। हिंदि घोरमपारं, संसारं मोह - संछण्णों ॥५८।। अय--पुण्य और पाप में कोई भेद नहीं है, इसप्रकार जो नहीं मानता है, वह मोह से युक्त होता हुआ घोर एवं अपार संसार में भ्रमण करता है ।।५८।। --- -.--- . -- -- - - १. द. ब. क. पदोसो। २. द ब, क, ज. ठ. दुक्खं । ३. ब है। ४. ६. माया। ५. ६. ब. क. तम्मा। ६.६.ब. क.उ. णयाणंता । ७. द. ब, क, ठ, एणं। . द.न. समोरपणो ।

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