Book Title: Tiloypannatti Part 3
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
View full book text
________________
५२ ]
तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : २२४-२२९ सत्त-सर-महुर-गीयं, गायंता पलह-वंस-पहुदीणि ।
वायंता गच्चंता', विजयं रज्जति तत्य सुरा ।।२२४।।
अर्थ-वहाँ देव सात स्वरोंसे गरि मधुर गीत गाते हैं और पह एवं बांसरी ग्रादिक बाजे बजाते एवं नाचते हुए बिजयदेवका मनोरंजन करते हैं ।। २२४ ।।
रायंगणस्स बाहि, परिवार-सुराण होति पासादा ।
विप्फुरिय-धय - बडाया, घर-रयणुज्जोइ-अहियंता ।।२२५॥
अर्थ--परिवार-देवोंके प्रासाद राजाङ्गणसे बाहर फहराती हुई ध्वजा-पताकाओं सहित और उत्तम रत्नोंकी ज्योतिसे अधिक रमणीय हैं ।। २२५ ।। .
बहुविह-रति-करणेहि, कुसलाओ णिच्च जोवण-जुदायो। णाणा - विगुव्वणाओ, माया - लोहादि - रहिदाओ ।।२२६॥ उल्लसिद - विन्भमाओ, 'छत्त - सहावेण पेम्मवंताओ।
सध्यारो देवीओ, प्रोलगते विजयदेवं ॥२२७।। अर्य-बहुत प्रकारकी रति करने में कुशल, नित्य ग्रोवन युक्त, नानाप्रकारको विक्रिया करने वाली, माया एवं लोभादिसे रहित, उल्लास युक्त बिलास सहित और छत्र-योगके स्वभाव सदृश प्रेम करने वाली समस्त देवियाँ विजयदेवकी सेवा करती हैं ।। २२६-२२७ ।।
णिय-णिय-ठाण णिविट्ठा, देवा सम्वे वि विणय-संपुण्णा ।
रिणभर - भत्ति - पसत्ता, सेवंते विजयमणवरतं ॥२२॥
अर्थ-अपने-अपने स्थान पर रहते हुए भी सब देव विनयसे परिपूर्ण होकर और अतिशय भक्तिमें आसक्त होकर निरन्तर विजयदेवकी सेवा करते हैं ॥ २२८ ॥
विजयदेवके मगरके बाहर स्थित वन-खण्डौंका निरूपण तण्णयरोए बाहिं, गंतूणं जोयगाणि पणवीसं ।
चत्तारो वणसंडा, पचेक्कं चेत्त - तर - जुत्ता ॥२२६।। ---
- १. द.ब, ज. प चित्ता, क. णं चत्ता। २. द. ब. क. ज. छित्त। ३. ज्योतिषमें छत्र योग दो प्रकारसे कहे गये हैं। (१) जन्मकुण्डली में सप्तम भावसे आगेके सातों स्थानों में समस्त ग्रह स्थित हों तो छत्र योग होता है । यह योग जातकको अपूर्व सुख-शान्ति देता है। (२) रविवारको पू० फा०, सोमवारको स्वाति, मंगलको मूल, बुधवार को श्रवण, गुरुवारको उत्तरा भा०, शुक्रवारको कृतिका और शनिबारको पुनर्वसु नक्षत्र हो तो छत्र योग बनता है । इस योगमें किया हुआ कार्य शुभ फलदायी होता है।
-
-
-
-
-
-.-
-
-.-
-.
-..---
..--