Book Title: Tiloypannatti Part 3
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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सिलोयपण्णती
[ गाथा : २७२-२७४ प्रर्थ-प्रथम पथमें सूर्यकी एक मुहूर्त ( ४८ मिनिट ) की गतिका प्रमाण पाँच हजार दो सौ इक्यावन योजन और एक योजनको साठ कलानों में से उनतीस कला अधिक ( ५२५१३६ योजन) है ।।२७१।। इसप्रकार द्विचरम अर्थात् एक सौ ले रासीवे मार्ग तक ले जाना चाहिए।
बाह्य वीथीमें एक मुहूर्तका प्रमाण क्षेत्रपंच-सहस्सा ति-सया, पंचच्चिय जोयणाणि अदिरेगी। चोद्दस-कलाप्रो बाहिर पहम्मिविणवाइ-मुहुस-गदिमाणं ॥२७२॥
५३०५ । । अर्थ-बाह्य अर्थात् एक सौ चौरासी ( १८४ ३) मार्ग में सूर्यकी एक मुहूर्त परिमित गतिका प्रमाण पाँच हजार तीन सौ पाँच योजन और चौदह कला अधिक है ।।२७२।।
विशेषार्थ-सूर्यको बाह्य वीथीकी परिधि ३१८३१४ योजन है। ३१८३१४६०८ ५३०५३४ योजन बाह्यपथमें स्थित सूर्यकी एक मुहूर्तकी गतिका प्रमाण है।
केतु बिंबोंका वर्णनविणयर-णयर-तलावो, चत्तारि पमाण-अंगुलाणि च । हेटा गच्छिय होंति, अरिट - विमाणाण घय-वंडा ॥२७३॥
अर्थ-सूर्य के नगरतलसे चार प्रमाणांगुल नीचे जाकर अरिष्ट ( केतु ) विमानोंके ध्वज. दण्ड होते हैं ।।२७३॥
विशेषार्थ-केतु विमानके ध्वजा-दण्डसे ४ प्रमाणांगुल अर्थात् ( उत्सेधांगुलके अनुसार) =२० धनुष, ३ हाथ और ८ अंगुल ऊपर सूर्य का विमान है।
रिद्वाएं एयरतला, अंजणवण्णा अरिट-रयणमया ।
किचूरणं जोयण, पत्तेक्कं वास - संजुत्तं ॥२७४।।
अर्थ -अरिष्ट रत्नोंसे निमित केतुनोंके नगरतल अंजनवर्णवाले होते हैं। इनमे से प्रत्येक कुछ कम एक योजन प्रमाण विस्तारसे संयुक्त होता है ।।२७४।।
१. द. ब. क. ज, २५६ ।