Book Title: Tiloypannatti Part 3
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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अट्टम महाहियारो
संखेज्ज-सवं वरिसा, वर - विरहं आणदादिय- चउक्के । कल्प-गदाणं, एक्कारस-भेद - देवाणं ॥ ५४६ ॥
भणिदं
गाथा : ५४९-५५२ ]
अर्थ- वायस्त्रिश देवों, सामानिकों, तनुरक्षकों और तीनों पारिषदों का उत्कृष्ट विरह काल चार मास है । अनीक आदि देवों का उत्कृष्ट विरकाल कहते हैं
वह उत्कृष्ट विरह (काल) सौधर्म में छह मुहूर्त, ईशान में चार मुहूर्त, सनत्कुमार में तीन भागों में से दो भाग सहित नौ (९३) दिन, माहेन्द्रकल्प में विभाग सहित बारह ( १२ ) दिन, ब्रह्मकल्प में पैंतालीस (४५) दिन, महाशुक में अस्सी (८०) दिन, सहस्रार में सौ दिन और आनतादिक चारकरूपों में संख्यात सौ वर्ष प्रमाण है। यह उत्कृष्ट विरह काल इन्द्र आदि रूप ग्यारह भेदों से युक्त कल्पवासी देवों का कहा गया है ।। ५४६ - ५४६।।
नोट- :- लान्तय कल्प के विरह काल को दर्शाने वाली गाथा नहीं है ।
ecorate- सुराणं, उक्कस्तं अंतराणि पत्तेक्कं ।
संखेज्ज - सहस्साणि वासा गेवेज्जगे णवण्णं ।। ५५० ।।
अर्थ- नौ ग्रंथों में से प्रत्येक में कल्पातीत देवों का उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार वर्ष प्रमाण है ।। ५५० ।।
पल्लासंखेज्जं सो'
प्रणुद्दिसाणुत्तरेसु जक्कस्सं ।
सवे अवरं समयं जम्मण' - मरणाण अंतरयं ।। ५५१ ॥
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[ ५७९
अर्थ- वह उस्कृष्ट अन्तर अनुदिश और अनुत्तरों में पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । जन्म-मरण का जघन्य अन्तर सब जगह एक समय मात्र है ।। ५५१ ।।
मतान्तरसे विरहकाल
सु सु ति चउक्सु य, सेसे जणणंतराणि चणम्मि | सत्त-विण पक्ख मासा, बु-चउ छम्मासया
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कमसो ||५५२||
१. द. ब. क. ज. ऊ. सर । २. व. ब. क. ज ठ जण ।
३. ६. ब. क. ज. क. जांतराणि भवणाणि ।
दि ७ । १५ । मा १ । २ । ४ । ६ ।
- ( सौधर्मादि) दो, दो, तीन चतुष्कों (चार, चार, चार कल्पों ) में तथा शेष प्रवेयकों श्रादि में जन्म एवं मरण का अन्तर क्रमशः सात दिन एक पक्ष, एक मास, दो मास, चार मास और छह मास प्रमाण है ।। ५५२ ।।