Book Title: Tiloypannatti Part 3
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 676
________________ ६०८ ] तिलोयपपत्ती [ गाथा : ६८२-६८५ परिधि का प्रमाण मनुष्य लोक की परिधि के प्रमाण सदृश ( चतुर्थाधिकार मा०७) १४२३०२४६ यो० है । इस पृथिवी के ऊपर अर्थात् लोक के अन्त में क्रमश: ४००० धनुष, २००० धनुष और १५७५ धनुष मोटे घनोदधि, धन और तनु वातवलय हैं। इसप्रकार सर्वार्थसिद्धि विमान के ध्वजदण्ड से {१२ यो० + ६ यो०+७५७५ धनुष अर्थात् ) ४२५ धनुष कम २१ योजन ऊपर अर्थात् तनुबातवलय में सिद्ध प्रभु विराजमान हैं। इनके निवास क्षेत्र के घनफल आदि के लिए नवमाधिकार की गाथा ३-४ दृष्टव्य है। नोट-इसी ग्रन्थ के प्रथमाधिकार गा० १६३ के विशेषार्थमें सर्वार्थसिद्धि विमानके ध्वजदण्डसे २९ यो० ४२५ धनुष ऊपर जाकर लोकका अन्त लिखा है। जो अष्टमाधिकार गा० ६७५६८१ का विषय देखते हुए गलत प्रतीत होता है । १११६३ का विशेषार्थ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष भाग ३ पृष्ठ ४६० पर ऊर्ध्व लोक के सामान्य परिचय के अन्तरगत दिये हुए नोट के माधार पर दिया था। यदि सिद्धशिला के मध्यभाग की ८ योजन मोटाई, ८ योजन मोटी ८ वीं पृथिवी में ही निहित है तो सर्वार्थसिद्धि विमानके ध्वजदण्ड से सिद्धोंका निवास क्षेत्र ४२५ धनुष कम २१ यो० होता है ( यही प्रमाण यथार्थ ज्ञात होता है क्योंकि दूसरे अधिकार की गाथा २४ में ८ वी पृथिवी द्वारा दसों दिशाओं में धनोत्र वानर गाय पर कहा गया है ) और यदि ८ योजन मोटी पाठवीं पृथिवो के ऊपर ८ योजन बाहयवाली सिद्धशिला है तो उस क्षेत्र की ऊंचाई अर्थात् लोक के अन्त का प्रमाण ( १२ यो++ यो० + यो०+७५७५ धनुष ) ४२५ धनुष कम २६ यो० होगा । यह विषय विद्वज्जनों द्वारा विचारणीय है । एदस्स चउ-विसास, चत्तारि तमोमयाओ राजीनो' । णिस्सरिदूणं बाहिर-राजीरणं होदि बाहिर - प्पासा ॥६८२॥ तन्छिविणं तत्तो, तानो पदिदानो चरिम-उहिम्मि । अभंतर' - तीरावो, संखातीदे अजोयणे य धुवं ।।६८३॥ बाहिर-चउ-राजोणं, बहि-अवलंबो पवेवि रोवम्मि । जंबूबीवाहितो, गंतूणं असंख - दीव - वारिणिहि ॥६८४॥ बाहिर-भागाहितो, अवलंबो तिमिरकाय-णामस्स । जंबूदीहितो, तम्मेत्तं गदुअ' पददि दीवम्मि ॥६८५॥ एवं 'लोयंतिय-पख्वणा समत्ता। १.६.म. क. ज. 3. रज्जू मो। ३. इ.ब.क.ज.ठ. यदु। २. व. प्रम्भितर। ४.ब.प.क. ज.. लोय ।

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