Book Title: Tiloypannatti Part 3
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : ६-७
प्रर्थ-सुरलोक निवास क्षेत्र १, विन्यास २, भेद ३, नाम ४, सीमा ५ संख्या ६, इन्द्रविभूति ७, आयु, उत्पत्ति एवं मरणका अन्तर ९, आहार १०, उच्छ्वास ११, उत्सेध १२, देवलोक सम्बन्धी ग्रायुके बन्धक भाव १३, लौकान्तिक देवोंका स्वरूप १४ गुणस्थानादिकका स्वरूप १५, दर्शन-ग्रह के विविध कारण १६, आगमन १७ अवधिज्ञान १८, देवोंकी संख्या १६, शक्ति २० और योनि २१ इसप्रकार निर्मल बोधको उत्पन्न करनेवाले जिनेन्द्रके मुखसे निकले हुए सुरलोक-प्रज्ञप्ति नामक महाधिकारमें ये इक्कीस अधिकार हैं ।। २-५।।
देवोंका निवासक्षेत्र
४४४ ]
उत्तरकुरु- मणुवाणं, 'एक्केणेण तह य बालेण ।
पणवीसुत्तर चउ सय कोदंडे हि विहीणेरा || ६ ||
इगिट्टी अहिएणं, लक्खेणं जोयणेण ऊणाओ ।
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रज्जो सत्त गणे, उडदुडु णाक पडलाणि ॥७॥
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७ रिणं १०००६१ रिणस्स रिणं धरणं ४२५ रिण । बा १ ।
| निवासखेत्तं गवं ॥१॥
अर्थ - उत्तरकुरुमें स्थित मनुष्योंके एक बाल, चार सौ पच्चीस धनुष और एक लाख इस योजनोंसे रहित सात राजू प्रमाण आकाश में ऊर्ध्व ऊर्ध्व ( ऊपर-ऊपर ) स्वर्ग-पटल स्थित हैं ||६-७||
विशेषायं - ऊध्र्वलोक मेहतलसे सिद्धलोक पर्यन्त है, जिसका प्रमाण ७ राजू है । इसमें से प्रमाण अर्थात् १०००४० योजनका मध्यलोक है । मेरुकी चूलिकासे उत्तम भोगभूमिज मनुष्यके एक बाल ऊपर स्वर्गका प्रारम्भ है। लोकके अन्त में १५७५ धनुष प्रमाण तनुवातबलय, १ कोस प्रमाण घनवातवलय और २ कोस प्रमाण घनोदधिवातवलय है । अर्थात् ४२५ धनुष कम १ योजन क्षेत्र में उपरिम वातवलय है। इसके नीचे सिद्धशिला है जो मध्यभागमें ८ योजन मोटी है और सिद्धशिलासे १२ योजन नीचे सर्वार्थसिद्धि विमानका ध्वजदण्ड है । इसप्रकार लोकान्तसे [ ( १२+5) + ( १ यो० – ४२५ धनुष = ) ] ४२५ धनुष कम २१ योजन नीचे और मेरुतलसे १०००४० यो०+ १ बाल ऊपर अर्थात् —
७] राजू - [ ( १०००४० + १ बाल ) + ( २१ योजन - ४२५ धनुष ) ] बराबर क्षेत्र में स्वर्गलोककी प्रवस्थिति कही गई है ।
निवास क्षेत्रका कथन समाप्त हुआ ॥ १ ॥
१. ब. एक्के पूर्ण क. ठ. ज. एक्कं णूपेण । २. द. ब. क. अ. ज. रयो द्रदुद्द ।
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