Book Title: Tiloypannatti Part 3
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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गाथा : ५८१ - ५८४ ]
सत्तमो महाहियारो
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धर्म -- लवणोदधि आदि चारोंके विस्तार प्रमाणमेंसे अपने आधे सूर्य-बिम्बों को घटाकर शेषमें अर्ध-सूर्य-संख्याका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना प्रत्येक सूर्यका और इससे आधा जगती एवं आसन्न ( प्रथम ) मार्ग के बीचका अन्तराल प्रमाण होता है ।। ५७६-५८० ११
लवणसमुद्रमें प्रत्येक सूयंका और जगतीसे प्रथम पथका अन्तराल
णयणउनि सहस्साणि, पय-सय-जवणउदि जोयणाणि पि । तेरसमेत कलाओं, भजिदण्या एक्सट्ठीए || ५८१ ॥
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एत्तियमेत्त
पमाणं, पत्तंक्कं दिणयराण विच्चालं । लवणोवे तस्सद्ध, जगदीणं णियय पदम मग्गाणं ॥३५८२ ॥
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अर्थ - निन्यानबे हजार दो सौ निन्यानबे योजन और इकसठसे भाजित तेरह कला, इतना लवण समुद्र में प्रत्येक सूर्य के प्रन्तरालका प्रमाण है और इससे अाधा जगती एवं निज प्रथम मार्गके बीच अन्तर है ।। ५८१-५८२॥
विशेषार्थ - लवणसमुद्रका विस्तार दो लाख योजन, सूर्य संख्या ४ और इनका बिम्ब विस्तार (ix)=यो० है । उपर्युक्त नियमानुसार दो सूर्योका पारस्परिक अन्तर इसप्रकार है – २००००० – { ¥fxx)+1= १२९९९९९१ योजन है। तथा प्रथम पथसे जगतीका अन्तर ६०६६५२०४६७६ TxT M= ४६१६६३ योजन प्रमाण है ।
धातकीपस्थ सूर्य प्रादिके अन्तर प्रमाण
छाडि - सहस्साणि, छस्सय पण्णट्टि जोयणाणि कला । इगिसट्टी जुत्त सयं, तेसीदि जुद सयं हारो ॥५६३ ॥
६६६६५ । १३ ।
एवं अंतरमाणं, एक्केवक रवीरण लेस्सागढी तवद्ध, तस्सरिसा उबहि
१. व. ब. क. ज. मग्गा य ।
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धावईसंडे | आबाहा ।। ५६४ ।।
अर्थ- छ्यासठ हजार छह सौ पैंसठ योजन और एक सौ तेरासीले भाजित एक सौ इकसठ कला, इतना धातकीखण्ड में प्रत्येक सूर्यका अन्तराल प्रमाण है। इससे आधी किरणोंको गति और उसके सदृश ही समुद्रका अन्तराल भी है ।।५८४ |