Book Title: Tiloypannatti Part 3
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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तिलोय पण्णसी
तिचोंमें सुख-दुःखकी परिकल्पना
सवे भोगभुवाणं, संकप्पवसेण होइ सुहमेषकं । कम्माचरिंग - तिरियाणं, सोक्खं द्रवखं च संप्पो ॥ ३०० ॥
सुह- दुक्खं समत्तं ॥ ११ ॥
अर्थ- - सब भोगभूमिज तिर्यंचोंके संकल्पबश केवल एक ही ( मात्र ) सुख होता है और कर्मभूमिज तिथंच जीवोंके सुख एवं दुःख दोनोंकी कल्पना होती है ॥ ३०० ॥
सुख-दुःखका वर्णन समाप्त हुआ ।।११।।
तिर्यंचोके गुणस्थानोंका कथन
तेत्तीस - मेद-संजु - तिरिक्ख-जीयारण सम्ब- कालम्मि |
मिच्छत्त गुणद्वाणं, वोच्छं सण्णीण तं माणं ।। ३०१ ।।
१७० ]
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[ गाथा : ३००-३०४
अर्थ -- संज्ञी ( पर्याप्त ) जीवोंको छोड़कर शेष तैंतीस प्रकारके भेदोंसे युक्त तिर्यंच जीवोंके सब कालमें एक मिथ्यात्व गुणस्थान रहता है । अब संज्ञी जीवोंके गुणस्थान- प्रमाणका कथन करते हैं ||३०१ ||
पण पर अज्जाखंडे, भरहेरावदम्मि मिच्छ गुणठाणं ।
अवरे वरम्मि पण गुणठाणाणि कमाइ दीसंति ॥ ३०२ ॥
अर्थ- - भरत और ऐरावत क्षेत्र स्थित पाँच-पाँच श्रार्यखण्डों में जघन्य रूपसे एक मिथ्यात्व गुणस्थान और उत्कृष्ट रूपसे कदाचित् पाँच गुणस्थान भी देखे जाते हैं ।। ३०२ ||
पंच- विदेहे सट्टी, समदि सद-अज्जखंडए तत्तो ।
विज्जाहर सेढीए, बाहिरभागे सयंपह - गिरीदो || ३०३ ||
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सासण- मिस्स - विहीणा, तिगुणद्वाणाणि थोय-कालम्म |
अवरे यरम्मि पण गुणठाणाइ कयाइ वीति ॥ ३०४ ॥
- पाँच विदेहक्षेत्रोंके एक सौ साठ आर्य खण्डों में, विद्याधर थे णियों में और स्वयम्प्रभ
पर्वतके बाह्य भागमें सासादन एवं मिश्र गुणस्थानको छोड़ तीन गुणस्थान जघन्यरूपसे स्तोक कालके होते हैं । उत्कृष्टरूपसे पाँच गुणस्थान भी कदाचित् देखे जाते हैं ।। ३०३-३०४।।