Book Title: Tiloypannatti Part 3
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : १३-१७
अर्थ- --इन कूटोंके उपरिम भागपर अनेक प्रकारके विन्याससे संयुक्त सुवर्णमय, रजतमय और रत्नमय जिनेन्द्र- प्रासाद हैं ||१२||
भिंगार - कलस दप्पण-चय-चामर- वियण- छत्त - सुपइट्ठा । इय अट्ठत्तर - मंगल - जुत्ता य पत्तेषकं ॥ १३ ॥
अर्थ - प्रत्येक जिनेन्द्र प्रासाद भारी, कलश, दर्पण, ध्वजा, चंबर, बीजना, छत्र और ठोना, इन एक सौ आठ एकसौ आठ उत्तम मंगल द्रव्योंसे संयुक्त है ।। १३ ।।
दु दुहि मयंग मद्दल जयघंटा पडह कंसतालाणं ।
वीणा वंसादीर्ण,
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सद्दहि णिच्च हलबोला ॥१४॥
अर्थ - (वे ) जिनन्द्र प्रासाद दुन्दुभी, मृदङ्ग, मर्दल, जयघण्टा, भेरी, झांझ, वीणा और बांसुरी आदि बादित्रोंके शब्दोंसे सदा मुखरित रहते हैं || १४ ||
कृत्रिम जिनेन्द्र- प्रतिमाएं एवं उनकी पूजा
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सिंहासनादि सहिया, चामर करणाग जवख मिहुण-जुदा । तेसु अकिट्टिमाओ, जिदि पडिमा विजयंते ।।१५।।
प्रतिमाओं की पूजा करते हैं ।। १६ ।।
अर्थ – उन जिनेन्द्र भवनों में सिंहासनादि प्रातिहार्यों सहित और हाथ में घामर लिए हुए नागयक्ष देव-युगलों से संयुक्त अकृत्रिम जिनेन्द्र- प्रतिमाएँ जयवन्त होती हैं ।। १५ ।।
कम्मखवण- णिमितं, म्भिर भत्तीय विविह-वहिं । सम्माट्ठी देवा, जिवि पडिमा पूजति ॥१६॥
श्रर्य - सम्यग्दृष्टि देव कर्मक्षयके निमित्त गाढ़ भक्ति से विविध द्रव्यों द्वारा उन जिनेन्द्र
एदे कुलदेवा इय, मण्णता मिच्छाइट्ठी देवा, पूजति
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देव बोहण बलेन । जिणिद पडिमा ॥१७॥
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अर्थ – ग्रन्थ देवोंके उपदेशयश मिध्यादृष्टि देव भी 'ये कुलदेवता हैं' ऐसा मानकर उन जिनेन्द्र - प्रतिमाओं की पूजा करते हैं ||१७||
१. द. क. ज. सध्येहि ।