Book Title: Tiloypannatti Part 3
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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गाथा : ११२-१२३ ] पंचमो महाहियारो
[ ३१ यासी वि माणुसत्तर-यासादो दस-गुण-प्पमाणेणं । तग्गिरिणो मूलोवरि, तड - वेदी - प्पहुदि-जुत्तस्स ॥११६ ।
मूल १०२२० । मज्झ ७२३० । सिहर ४२४० । अर्थ – तटवेदी आदिसे संयुक्त इस पर्वतका मूल एवं उपरिम विस्तार मानुषोत्तर पर्वतके विस्तार-प्रमागासे दसगुना है ।। ११६ ॥
विशेषार्थ - चतुर्थाधिकार गाथा २७९४ में मानुषोत्तर पर्वतका मूल वि० १०२२ योजन, मध्य वि० ७२३ यो० और शिखर वि० ४२४ यो० कहा गया है । कुण्डलगिरिका विस्तार इससे दम गुना है अत: उसका मूल विस्तार १०२२० योजन, मध्य विस्तार ७२३० योजन और शिखर विस्तार ४२४० योजन प्रमाण है।
कुण्डलगिरिपर स्थित क्रूटोंका निरूपरण उरि कुण्डलगिरिणो, दिवाण हात वीस कडाण ।
एवाणं विण्णासं', भासेमों' प्राणुपुवीए ॥१२०।।
अर्थ- कुण्डल गिरि के ऊपर जो दिव्य कूट हैं, उनका विन्यास अनुक्रमसे कहता हूँ ॥ १२० ।।
पुश्वादि-चउ-दिसासु, चउ-चउ कूडाणि होति पत्तक ।
ताणभंतर - भागे, एक्केको सिद्धवर • कूडो ॥१२॥
अर्थ-पूर्वादिक चार दिशाओंमेसे प्रत्येकमें चार-चार कूट हैं और उनके अभ्यन्तर-भाग में एक-एक सिद्धवर कूट है ।। १२१ ।।
वज्जं वज्जपहक्खं, कणयं कणयप्पहं च पुवाए । बक्षिण-विसाए रजवं, रजदप्पह-सुप्पाहा महप्पहयं ।।१२२।। अंक अंकपहं मरिण कूडं पच्छिम-विसाए मणिपहयं ।
उत्तर-दिसाए रुचकं, रुचकाभं हेमवंत' - मंदरया ।।१२३॥
अर्थ-बन, बज्रप्रभ, कनक और कनकप्रभ, ये चार कट पूर्व-दिशामें ; रजत, रजतप्रभ, सुप्रभ और महाप्रभ, ये चार दक्षिण-दिशामें ; अङ्क, अङ्कप्रभ, मणिकूट और मणिप्रभ, ये चार पश्चिम दिशामें तथा रुचक, रुचकाभ, हिमवान् श्रीर मन्दर, ये चार फूट उत्तर-दिशामें स्थित हैं ।। १२२-१२३ ।।
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१. ब. यिण्णासे । २. ब. भासमो। ३. द. ज. हेमवम, ब. हेमवरमं ।