Book Title: Tiloypannatti Part 3
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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तिलोयपण्णत्ती
सव्वत्थ तस्स रुदो, चउसीदि सहस्स - जोयण- पमाणा । तम्मेसी उच्छेहो, एक्क सहस्सं पि गाढत्तं ॥ १४२॥
[ गाथा : १४२-१४६
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८४००० | १००० ।
अर्थ-उस पर्वतका विस्तार सर्वत्र चौरासी हजार ( ४००० ) योजन, इतनी ही ऊँचाई और एक हजार ( १००० ) योजन प्रमाण अवगाह है ।। १४२ ।।
मूलोवरिम्मि भागे, तह-वेदी उबवणाइ चंद्र ति ।
तगिरिणो वर-वेदि-पहुवीहि अहिय रम्माणि ॥ १४३ ॥
अर्थ - उस पर्वतके मूल और उपरिम भाग में वन-वेदी आदिकसे अधिक रमणीय तटवेदियाँ एवं उपवन स्थित हैं ।। १४३ ।।
रुचक पर्वत के ऊपर स्थित कूट, उनका विस्तार आदि, उनमें निवास करने वाली देवांगनाएँ और जन्माभिषेकमें उन देवांगनाओं के कार्य
गिरि-वरिम भागे चोदाला होंति दिव्य-कूडाणि । एवाणं विष्णासं, भासेमो आणखी ॥ १४४ ॥
अर्थ 1- इस ( रुचक ) पर्वतके उपरिम भाग में जो चवालीस दिव्य कूट हैं, उनका विन्यास अनुक्रमसे कहता हूँ ।। १४४ ।।
कणयं कंचण-कूड, तवणं सरिथय' - दिसासु-भद्दाणि ।
अंजणमूलं अंजणवज्जं ' कूडाणि श्रट्ट पुष्याए ।। १४५ ।।
ये
अर्थ - कनक, कांचनकूट, तपन, स्वस्तिक दिशा, सुभद्र, अंजनमूल, अंजन श्रीर वज्र, आठ कूट पूर्व दिशा में हैं ।। १४५ ।।
पंच-सय-जोयणाई, तुरंगा तम्मेल- मूल विषखंभा । कूडा वेदि वण जुत्ता ॥ १४६॥
तद्दल जवरिम-हंदा, ले
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५०० ५००। २५० ।
अर्थ — दी एवं वनों से संयुक्त ये कूट पाँच सौ ( ५०० ) योजन ऊँचे और इतने ( ५०० यो० ) प्रमाण मूल - विस्तार तथा इससे आधे ( २५० यो० ) उपरिम विस्तार सहित हैं ।। १४६ ॥
१. द. ब. क. ज. संघिय । २. द. ज. क. अंजमूलं, ब अजमून । ३ द. ज. क. अजवजं, ब. अंजवजे । ४. बॅ. मंड़ ।