Book Title: Tiloypannatti Part 3
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : ७७-८०
अर्थ -- दक्षिरण अञ्जनगिरिकी पूर्वादिक दिशाओं में अरजा, विरजा, अशोका और वीतशोका नामक चार वापिकाएँ हैं ।। ७६ ।।
२२ ]
विजय तिवइजयंती, जयंति णामापराजिदा सुरिमा ।
पच्छिम जय तेले', अशा
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कंसवणीसंता ॥७७॥
अर्थ --- पश्चिम अञ्जनगिरिकी चारों दिशाओं में विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और चौथी अपराजिता, इसप्रकार ये चार वापिकाएँ हैं ।। ७७ ।।
रम्मा - रमणीयाओ, सुप्पह णामा य सन्वदो भद्दा |
उत्तर - अंजण सेले, पुत्रादिसु कमलिणीसंडा ॥७८॥
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श्रर्थ -
-उत्तर अञ्जन गिरिको पूर्वादिक दिशाओं में रम्या, रमणीया, सुप्रभा और सर्वतो - भद्रा नामक चार वापिकाएँ हैं ।। ७८ ।।
वनों में अवस्थित प्रासाद और उनमें रहनेवाले देवोंका कथन
एक्क्का पासावा, चउसट्ठि-वणेसु अंजरणगिरीणं । घुवंत धय-वडाया हवंति वर रयण-कणयमया ॥७६॥
भ्रयं – अञ्जन गिरियोंके चौंसठ बनोंमें फहराती हुई ध्वजापताकाओंसे संयुक्त उत्तम रत्न एवं स्वर्णमय एक-एक प्रासाद है ।। ७९ ।।
विशेषार्थ – नन्दीश्वरद्वीपको चारों दिशाओंमें एक-एक अञ्जनगिरि पर्वत है । प्रत्येक अंजनगिरिको चारों दिशाओंमें एक-एक वापिका है और प्रत्येक वापिकाकी प्रत्येक दिशा में एक-एक वन है ।
इसप्रकार एक दिशामें एक अञ्जनगिरिकी चार वापिकाओं सम्बन्धी १६ वन हैं। चारों दिशाओंके ६४ वन हैं और प्रत्येक वनमें एक-एक प्रासाद हैं ।
वासट्टि जोयणाणि उदओ इगितीस ताण वित्थारो । farथार समो दोहो, वेबिय चउ-गोड रेहि परियरिश्रो ||८०||
अर्थ - इन ( प्रासादों ) की ऊँचाई वासठ योजन और विस्तार इकतीस योजन प्रमाण है । इनकी लम्बाई भी विस्तारके सदृश इकतीस योजन प्रमाण ही है । ये सब प्रासाद वेदियों और चार-गोपुरोंसे व्याप्त हैं ॥ ८० ॥
१. द. व. क. ज. सेला । २. द. ज. एक्केक्रूं । ३. ब. कणयमाला ।