Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2 Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri View full book textPage 9
________________ (1) आधुनिक महान् संत न्यायाचार्य पं. गणेशप्रसादजी वर्णीका अभिमत. श्रीयुत न्यायाचार्य पं. माणिकचंदजीको समाजमें कौन नहीं जानता । आप जैसे प्रखर विद्वान् हैं, वैसे निर्भीक वक्ता भी हैं । आपने श्री श्लोकवार्तिक ग्रंथके ऊपर भाषामें अनुपम रचना की है। वर्तमानमें इस ग्रंथका वही अध्ययन करनेका पात्र है जिसने न्याय, सांख्य, बौद्ध और वेदान्त दर्शनका अभ्यास किया हो तथा जैनदर्शनको भी विद्वानोंके द्वारा अध्ययन किया हो । ऐसे महान् ग्रन्थके भावको आपने अपनी लेखनी द्वारा इतना स्पष्ट और विशद लिखा है, जिन्होंने भाषामें परीक्षा मुख न्यायदीपिकाका अभ्यास किया है वे भी इसमें परिश्रम करें तब समझ सकते हैं तथा संस्कृतमें जिन्होंने मध्यमातक न्यायशास्त्रका अध्ययन किया है वे भी इसके पढनेके पात्र हैं तथा जो आचार्य परीक्षामें पढ़ रहे हैं उन्हें भी इससे सहायता मिल सकती है । पंडितजीका हम लोगोंको महान् आभार मानना चाहिये जो उन्होंने बीस वर्ष महान् परिश्रम कर इस अभूतपूर्व कार्यको संपादन किया । आप चिरंजीवी रहें, यही हमारी कामना है। -गणेश वर्णी इटावा श्रीतत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिकालंकार-मूल ग्रन्थकर्ता-भगवान श्रीउमास्वामी, संस्कृत टीकाकार पूज्यपाद महर्षि आचार्यवर्य श्री विद्यानन्द स्वामी---हिंदी टीकाकार तर्करत्न सिद्धान्तमहोदधि पंडित श्री माणिकचंद्रजी न्यायाचार्य । संपादक तथा प्रकाशक, पंडित वर्धमानजी शास्त्री विद्यावाचस्पति न्यायतीर्थ, मंत्री श्री आचार्य कुंथुसागर ग्रंथमाला सोलापुर । मूल्य १२) रुपये। . पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय आचार्यवर्य श्रीमहर्षि विद्यानन्द स्वामी महोदयके विश्रुत और परोपकारी नामको कौन नहीं जानता ? उक्त आचार्यवर्यने जो अनेक महाग्रंथोंकी रचना कर जनताका अनुपम कल्याण किया है, वह अलौकिक और अनिर्वचीय है। उक्त आचार्यवर्यने भगवान उमास्वामीप्रणीत श्रीतत्त्वार्थसूत्रपर श्रीतत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार नामक बडी भारी टीका लिखी है, जो शास्त्रभांडागारके मूर्धन्यस्थान पर है। तार्किकशिरोमणि आचार्यवर्यने इस महाग्रंथमें तर्क प्रणालीसे जैनसिद्धान्तको प्रमाणित किया है, जिसकी तुलना होना कठिन है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार बडा दुर्बोध और कठिन न्यायग्रंथ है, उसके मर्मज्ञाता विरले ही विद्वान् हैं । उक्त ग्रंथके क्लिष्टत्व और संस्कृतभाषामें होनेके कारण उस रचनासे बहुत ही थोडे लोगोंको लाभ पहुंच सकता था। इसी कमीको पूरी करनेके लिए जैन समाजके प्रकांड और उद्भट विद्वान् वर्तमानमें प्रायः प्रसिद्ध नैयायिक जैनविद्वानोंके गुरु प्रसिद्ध-तार्किकरन वयोवृद्ध पंडित माणिकचंद्रजी न्यायाचार्यने वर्षांतक घोर परिश्रम कर उक्त ग्रंथका हिंदी भाषामें अनुवाद किया । तार्किकतामें उक्त पंडितजी जैसा आज दूसरा विद्वान् नहीं है । जो भी नैयायिक विद्वान् यत्र तत्र दि० जैन समाजमें दीखते हैं वे सभी प्रायः उक्त न्यायाचार्य महोदयके शिष्य ही हैं । पंडितजीमें तार्किक विद्वत्ताके अतिरिक्त सैद्धान्तिक, दार्शनिक और वैयाकरण योग्यता भी उसी कोटिकी है । आपने वर्षांतक घोर परिश्रम कर तथा शास्त्रसमुद्रका मथन कर इस ग्रंथराजकी टीका की है। उक्त पंडितजीकी इस रचनासेPage Navigation
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