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जैन साधु साध्वी संस्कृत भाषाके अधिकतर अभ्यासी देखे जाते हैं, पर संस्कृतसे अति सरल जैनत्वको मातृभाषा [!! कही जानेवाली प्राकृत और अर्धमागधीके अभ्यासमें उदासीन देखे जाते हैं. अभ्यास-प्रवृत्ति बढ़नी चाहिये | सरकार की ओरसे चलनेवाली युनिवर्सिटियोंमें संस्कृत-पालीके लिये जहां डिग्रियां दी जाती हैं, वहां प्राकृत-मागधी की प्रवृत्ति नगण्य है। जिसके लिये विचारवान जैनसंघने प्रयत्नशील होना चाहिये, अस्तु ।
भाषाशास्त्रियों की खोजसे उनके अभिमतोसे पता चलता है कि श्वेताम्बर जैन आगमोंकी भाषा बाज से २५०० वर्ष प्राचीन मानी जाती है। अर्धमागधी भाष' योना गात देगर पड़ी ना तो पढ़ी सरल मालूम देती है। स्थानकवासी समाजकी
ओरसे अन आगमों पर अपने साम्प्रदायिक ढंगसे नई २ टीकाओंका निर्माण हो रहा है। यदि उसके निर्माचा साम्प्रदायिक दुरापइसे रहित हों, तो अधिक यांच्छनीय होना।
इस दीपिकावृत्तिके साथ जो सूयगडांग मूल छपा है उसमें मागधी प्रयोग सुरक्षित दीखते है, जो अभ्यासीके लिये ध्यान देनेकी वस्तु है। शीलांकसूरिकी वृत्ति विस्तृतरूपसे वस्तुस्वरूपकी चर्चा करती है, वहां यह दीपिका अति संक्षिप्त रूपसे सिद्धान्तोंका प्रतिपादन करती है। दोनों विस्तृत और संक्षिप्त टीकाओंको गुरुगमसे पढनेवाले ही जैन दर्शनकी सर्वोदयमावी सर्वतोमुखी | स्थाद्वाद चैलिका सही मूल्यांकन कर सकेंगे। इसके सम्पादन करनेवाले एवं प्रकाशन करनेवाले धन्यवाद के पात्र है। इसके पठन-पाठनसे वस्तुस्वरूपकी हेय ज्ञेय उपादेय विशेषताको यथायोग्य ढंगसे आत्मपरिणत करे यही प्रार्थनीय । सबका कल्याण हो।
उपाध्याय कवीन्द्रसागर