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का विधान करते है। इससे स्पष्ट होता है कि-अर्धमागधीके रूप पाहतसे भिन्न होते है । जो स्वयं उन्हीने अपने सिद्धहममें "अत एत्सौ पुसी मागण्यां"। ८-४-२८७ मूत्रमें और उसके बादके 4-४-३०१ सूत्र सकमें प्रतिपादन करते हैं।
आगमोदय समितिद्वारा प्रकाशित श्रीशीलोकमूरिकृत टीकाबाले श्रीसूयगडांगसूत्र में और इस दीपिका टीकावाले सूयगडांग• सूत्र में इस प्रकार भाषाभेद देखा जाताहे-"बुज्झिजत्ति तिउट्टिा -किमाह बंधणं वीरो"। श्रीशीलांकमूरि वृत्तिवाली प्रतिमें ऐसा पाठ है । तब दीपिकावृत्तिवाली प्रतिमें-" बृाझेच तिनजा-किमाह बंधणं वीरे" इस प्रकार दोनों प्रतियों की पहिली ही गायाने कितना रूपान्तर है। पूर्व प्रदर्शित पाठ जहां प्राकृत में प्रवेश करता है तो अनन्तर दीपिका सूचित पाठ अर्धमागधीके रूपोंको सुरक्षित करता है। यहां यदि सारे सूत्रको गाथाओंके पाठभेदके उदाहरण लिखे जायें तो एक लम्बासा प्रकरण बन सकता है।
आगम प्रकाशन करनेवाले महानुभावोंने प्राकृत और मागधीमें जो भेद था उसकी ओर गजनिमीलिका न्याय स्वीकार किया दीखता है । श्रीशीलांकसूरियाली प्रतिम प्रथमाके एक ववनगत-'वीरे-को वीरो' कर दिया है। श-का तो प्रयोग ही कहीं नहीं दीखता, जो मागधीमें होना चाहिये । वीरो-प्रयोग गळत तो नहीं कहा जा सकता पर भाषाके इतिहासकी दृष्टिसे खेदजनक जरूर हुआ है। प्राकृत भाषाके साथ सौरसेनी-पैशाची-मागधी आदि भाषाओंके लियेभी कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेम. चन्द्राचार्यने-जैनविद्वान् पण्डित श्रीचण्डने-ऐदयुगीन स्थानकवासी स्वर्गीय शतावधानी सन्त श्रीरतचंद्रजी स्वामीने-पण्डित वेचरदासजीने-पण्डित प्रभुदासभाईने एवं जैनाचार्य श्रीमद विजयविज्ञानसूरिजीके शिष्यरल श्रीविजयकस्तरसूरिजीने विशेष २ प्रयत्न किये दिखाई देते हैं।