Book Title: Suryaprajnapti Chandraprajnapti
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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से हुई है, उसके मूल में धर्मबोध की ही प्रधानता रही है और इसलिये धार्मिक चर्चाओं में सर्वत्र 'लोकविज्ञान, लोकचिन्तन' को भी महत्त्व मिला है। ऐसी एक आवश्यक चर्या का आध्यात्मिक महत्त्व सर्वोपरि है और वह है -
एयंसि णं भंते ! एमहालयंसि लोगंसि अस्थि केइ परमाणुपोग्गलत्ते वि पएसे जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, न मए वा वि? नो इणढे समठे। से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ - 'एयंसि णं एमहालयंसि लोगंसि नत्थि केई परमाणुपोग्गलमत्ते वि पएसे जत्थ णं अयं जीवे ण जाए वा न मए वा वि?' गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे अयासहस्सस्स एगं महं अयावयं करेजा, से णं तत्थ जहण्णेणं एक्कं वा दो वा तिण्णि वा,
उक्कोसेणं अयासहस्सं पक्खिवेज्जा, ताओ णं तत्थ पउरगोयराओ पउरपाणियाओ, जहण्णेणं एगाहं वा, दुयाहं वा, तियाहं वा,
उक्कोसेणं छम्मासे परिवसेज्जा। अत्थि णं गोयमा! तस्स अयावस्स केयि परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे जे णं तासिं अयाणं उच्चारेण वा पासवणेण वा खेलेण वा सिंघाणएण वा वंतेण वा पित्तेण वा पूरण वा सुक्केण वा सोणिएण वा चम्मेहि वा रोमेहि वा सिंगेहि वा खुरेहिं वा नहेहिं वा अणोक्कंतपुव्वे भवइ ? उ. णो इणठे समठे।
होज्जा वि णं गोयमा! तस्स अयावयस्स केयि परमाणुपोग्गलमत्ते वि पएसे जे णं तासिं अयाणं उच्चारेणं वा जाव नहेहिं वा अणोक्कंतपुव्वे
नो चेव णं एयंसि एमहालयंसि लोगंसि लोगस्स य सासयभावं, संसारस्स य अणादिभावं,
. जीवस्स य निच्चभावं कम्मबहुत्तं जम्मण-मरणाबाहुल्लं च पडुच्च नत्थि केयि परमाणपोग्गलमत्ते वि पएसे - 'जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, मए वा वि।'
से तेणठेणं गोयमा! वुच्चइ -
'एयंसि णं एमहालयंसि लोगंसि नत्थि केइ परमाणुपोग्गलमत्ते वि पएसे जत्थ णं अयं जीवे णं जाए वा न मए वा वि।'
-विया. स. १२, उ. ७,सु.३/१-२. अर्थात् इस लोक का ऐसा कोई प्रदेश नहीं है, जहाँ अनेक बार जीव उत्पन्न हुआ और मरा नहीं। जिस लोक में मानव उत्पन्न हुआ है, उसके स्वरूप-परिज्ञान से वह सोचने लगता है कि 'इस लोक के प्रत्येक प्रदेश में मेरे अनेक बार जन्म और मरण हुए हैं, अतः इस पुनः पुनः जन्म-मरण के चक्र से मुझे मुक्त होना चाहिये।' उसकी यह जागरुकता उसे विभिन्न पुण्य-पाप, सत्कर्म-दुष्कर्म आदि से परिचित कराती है और उनके स्वरूपों से परिचित हो कर असत्कर्मों से निवृत्ति एवं सत्कर्मप्रवृत्तिपूर्वक अपने निरापद गन्तव्य का निर्धारण करने में तत्पर हो जाता है। यदि समस्त लोक तथा पृथ्वी पर स्थित द्वीपादि का निरूपण शास्त्रों में नहीं होता तो जीव अपने स्वरूप के परिचय से अपरिचित ही रह जाता और वैसी
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