Book Title: Suryaprajnapti Chandraprajnapti
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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में इसका निर्देश हुआ है। उन्होंने वहाँ लिखा है - 'भद्रबाहुसूरि कृत नियुक्ति का नाश हो जाने से मैं केवल मूल सूत्र का ही व्याख्यान करूंगा।' इसके बीच के काल में भाष्य और चूर्णियां भी लिखी गई किन्तु सूर्य-प्रज्ञप्ति पर किसी ने लिखा हो, ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता।
___ आचार्य मलयगिरि का स्थितिकाल १५वीं शती माना जाता है ।इनके द्वारा लिखे गये ग्रन्थों में 'सूर्यप्रज्ञप्त्युपाङ्ग टीका' ९५०० श्लोक प्रमाण उपलब्ध होती है। इसी का अपरनाम 'सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्ति' प्रचलित है। आचार्य ने यहाँ आरंभ में मिथिलानगरी, मणिभद्र चैत्य, जितशत्रु राजा, धारिणी देवी और भगवान् महावीर का साहित्यिक वर्णन किया है। तदनन्तर गणधर इन्द्रभूति गौतम का वर्णन है। वैसे सूर्य-प्रज्ञप्ति के बीसों प्राभूतो का विवेचन मननीय है और उसमें यत्र-तत्र विशिष्ट चिन्तन, आलोचना एवं स्वमत-निरूपण को ही स्थान दिया है।
यद्यपि अधिकांश आचार्य, जिन्होंने आगम-ग्रन्थों पर भाष्य, नियुक्ति, चूर्णि या टीकाएँ लिखने में पर्याप्त उदारता व्यक्त की है, परन्तु सूर्य-चन्द्र संबंधी प्रज्ञप्तियों पर प्रायः नहीं लिखा है। इसका एक कारण यह प्रतीत होता है कि सीधं अध्यात्म एवं आचार-उपासना जैसे विषयों के प्रति उनकी रुचि विशेष रही होगी। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि इन प्रज्ञप्तियों के विषय विज्ञान के अतिनिकट होने से क्लिष्ट जान कर छोड़ दिये हों।
उत्तरकाल में कुछ आचार्यों ने इस कमी को समझा और पुनः इस पर टीका लिखने का उपक्रम किया। इनमें स्थानकवासी आचार्य मुनि धर्मसिंहजी (१८ वीं शती)ने सूर्यप्रज्ञप्ति के यन्त्र' निर्मित किये और इसी परम्परा के अन्य आचार्य श्री घासीलालजी महाराज ने ३२ आगमों पर जो संस्कृत भाषा में टीकाएँ लिखी हैं उनमें सूर्य-प्रज्ञप्ति पर 'प्रमेयबोधिनी'। सूर्य प्रज्ञप्ति-प्रकाशिका नामक टीका/व्याख्या महत्त्वपूर्ण है। इसमें आचार्य श्री ने मूलसूत्र की संस्कृत छाया और संस्कृत व्याख्या की है। इसका हिन्दी और गुजराती भाषा में अनुवाद दो भागों में प्रकाशित भी हुआ है, जिसका नियोजन पण्डित मुनि श्री कन्हैयालालजी ने किया है। हिन्दी और गुजराती अनुवादकर्ताओं का नामोल्लेख नहीं हुआ है। आचार्य श्री अमोलकऋषिजी ने भी प्रज्ञप्ति का हिन्दी अनुवाद किया है इसका प्रकाशन हैदराबाद से हुआ है तथा और भी कुछ विद्वान् आचार्यों ने इस पर विवेचन किये हैं।
सूर्य-प्रज्ञप्ति के संबंध में देश-विदेश के विचारक मनीषियों ने भी बहुत से अभिमत भिन्न-भिन्न लेखों में व्यक्त किये हैं। भारतीय ज्योतिष के क्षेत्र में बहुमान्य वराहमिहिर' नियुक्तिकार भद्रबाहु के भ्राता थे, उन्होंने अपने ग्रन्थ 'वराहसंहिता' में सूर्य प्रज्ञप्ति के कतिपय विषयों को आधार बनाकर उन पर लिखा है। इसी प्रकार प्रसिद्ध ज्योतिर्विद भास्कर ने सूर्य प्रज्ञप्ति की कुछ मान्यताओं को लेकर अपने खण्डनात्मक विचार व्यक्त किये हैं जो 'सिद्धान्तशिरोमणि' ग्रन्थ में द्रष्टव्य हैं । इसी प्रकार ब्रह्मगुप्त ने 'स्फुटसिद्धान्त' ग्रन्थ में खण्डन का आधार बनाया है। किन्तु इस युग में वैदेशिक विद्वानों ने सूर्य-प्रज्ञप्ति के महत्व को स्वीकार करते हुए इसे विज्ञान का ग्रन्थ माना है, डॉ. विन्टरनित्ज उनमें प्रथम है। डॉ.शुबिंग ने तो यहां तक कहा है कि 'सूर्य-प्रज्ञप्ति के अध्ययन के बिना भारतीय ज्योतिष के इतिहास को सही रूप से नहीं समझा जा सकता।' वेबर ने सन् १८६८ में 'उवेर डी सूर्य-प्रज्ञप्ति' नामक निबन्ध प्रकाशित किया था। डॉ.सिबो ने 'ऑन द सूर्य-प्रज्ञप्ति' नामक अपने शोध पूर्ण लेख में ग्रीक लोगों के भारतवर्ष में आगमन से पूर्व वहां 'दो सूर्य और दो चन्द्र' का सिद्धान्त सर्वमान्य था, ऐसा प्रतिपादित किया है तथा उन्होंने अतिप्राचीन ज्योतिष के वेदांग ग्रन्थ की मान्यताओं के साथ सूर्य-प्रज्ञप्ति के सिद्धान्तों की समानता भी बतलाई है। १०. प्रस्तुत प्रकाशन और कुछ प्रश्न : कुछ समाधान
-प्रज्ञप्ति' की गरिमा से स्वतः सिद्ध हो जाता है कि ऐसे ग्रन्थ का सर्वाधिक स्वाध्याय हो, मनन हो १. द्रष्टव्य, गच्छाचार की वृत्ति.
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