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परिशिष्ट ]
६९५४ भाग के योजन करने के लिये ६१ से भाग देने पर ११४ योजन होंगे।
३१११ योजन में ११४ योजन मिलाने पर ३२२५ योजन १८३ परिमंडल की परिक्षेप वृद्धि होती है । सर्वाभ्यंतरमंडल के परिक्षेप ३१५०८९ योजन में ३२२५ योजन के मिलाने पर सर्वबाह्य मंडल का परिक्षेप ३१८३१४ होगा ।
इस सूत्र के मूल पाठ में ३१८३१५ योजन सर्वबाह्यमंडल का परिक्षेप कहा है । वह व्यवहार से समझना चाहिये। क्योंकि पूर्व में प्रत्येक मंडल का परिक्षेप निकालने पर ३७५ शेष बढ़ते हैं । उनको १८३ मंडल से गुणा करने पर ६८६२५ आते हैं। इस संख्या को २१५० से भाग देने पर ३१ आते हैं । जो ६१ अर्धभाग की अपेक्षा विशेष होने से व्यवहार से पूर्ण मानकर ३१८३१५ कहे हैं ।
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सूत्र २.३
सूर्य की प्रत्येक मंडल में प्रतिमुहूर्त्त की गति
प्रत्येक मंडल का अंतर २ योजन ४८ / ६१ भाग है। दोनों सूर्य के मंडल का अन्तर ५ योजन ३५ / ६१ भाग है। सर्वमंडल का क्षेत्र ५१० योजन है ।
सूत्र २०
॥ प्रथम प्राभृत का अष्टम प्राभृत-प्राभृत समाप्त ॥
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२१५
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अर्थात् २ अहोरात्र में दोनों सूर्य १ मंडल की परिक्रमा पूर्ण करते हैं ।
प्रत्येक मुहुर्त की सूर्य की विशेष गति इस सूत्र ज्ञात की जा सकती है -
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१ मुहूर्त्त की गति = मंडल की परिधि / २ अहोरात्र के मुहूर्त्त
१ अहोरात्र के ३० मुहूर्त्त के अनुसार २ अहोरात्र के ६० मुहूर्त्त होते हैं ।
सर्वाभ्यंतरमंडल की परिधि ३१५०८९ योजन है ।
सर्वाभ्यंतरमंडल की परिक्रमा दोनों सूर्य ६० मुहूर्त में पूर्ण करते हैं ।
सूर्य जब मंडल में संक्रमण करता है तब अपनी एक विशेष गति से संक्रमण करता है । भरतक्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र के दोनों सूर्य अपनी विशिष्टगति से संक्रमण करके ६० मुहूर्त्त में १ मंडल की परिक्रमा पूर्ण करते
हैं ।
सर्वाभ्यंतरमंडल में सूर्य की १ मुहूर्त्त की गति
सर्वाभ्यंतरमंडल की परिधि / ६० मुहूर्त्त =१ मूहूर्त्त की गति ।
३१५०८९ योजन/ ६० मूहूर्त्त = ५२५१ योजन २९/६० भाग सूर्य की १ मुहूर्त की गति है ।
प्रत्येक मंडल की परिधि में व्यवहार से १८ योजन का अंतर होता है। अर्थात् सर्वाभ्यंतर मंडल की
परिधि में १८ योजन मिलाने पर सर्वाभ्यंतरमंडल के अनन्तरवर्ती दूसरे में उसको परिधि आती है। तदनुसार