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२१४ ]
[ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र
३१८३१४.८६९ योजन परिक्षेप ) । ३ १०१३२४३५६०००
سه
س
م
११३
५२२४
५०२४
६३६३
०२००३५
१९०८९
६३६६१
००९४६६०
६३६६२४
६३६६१ ३०९९९०० २५४६४९६
६३६६२७८
०५५३४०४००
५०९३०३०४ ६३६६२९६६ ०४४१००९६००
३८१९७५७९६ ६३६६२९७२९ ५९०३३८०४००
९ ५६२९६६७५६१ इस प्रकार ८६९ हजार से कम है, परन्तु 'अर्धादूर्ध्वमेकं ग्राह्यम्' इस न्याय से ३१४ के स्थान पर ३१५ ग्रहण किये हैं । इस प्रकार सर्वबाह्यमंडल का परिक्षेप ३१८३१५ योजन (व्यवहार से) होता है।
सर्वाभ्यंतरमंडल का परिक्षेप ३१५०८९ योजन है। पूर्व में बताई गई रीति से प्रत्येक मंडल के परिक्षेप | १७ योजन ३८/६१ भाग की वृद्धि होती है तो १८३ मंडल में कितने योजन परिक्षेप की वृद्धि होती है ?
१८३ मंडलx१७ योजन = ३१११ योजन होते हैं। १८३ मंडलx३८ (योजन का भाग) करने पर ६९५४ भाग आयेंगे।