Book Title: Suryaprajnapti Chandraprajnapti
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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और गम्भीरता पूर्वक इसमें वर्णित विषयों का स्व-पर कल्याण की दृष्टि से पुनः पुनः विचार हो। सम्भवतः इसी कल्याणमयी भावना से इसका प्रकाशन किया गया है, जो कि अभिनन्दनीय है।
___ यद्यपि यह ग्रन्थ मूल रूप में ही प्रकाशित है किन्तु इसके सम्पादनकर्ता मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' ने परिश्रम पूर्वक इसके पाठों को विशुद्ध रूप में प्रकाशित करने का प्रयास किया है। साथ ही पाद-टिप्पणियों में अनेक प्रश्नों को भी उठाया है तथा उनके समुचित समाधानों की कामना भी की है। मैंने जब इस का अवलोकन किया तो मेरे मन में भी कुछ प्रश्न उभर आये। उन सबका क्रमिक विचार भी यहां प्रस्तुत करना अनुचित न होगा। यहां उन प्रश्नों की उपस्थापना के साथ ही उनके यथोपलब्ध समाधान भी प्रस्तुत हैं - प्रश्न १. सूर्य-प्रज्ञप्ति ग्रन्थ वस्तुतः खंडित है फिर यह ग्रन्थ कैसे पूर्ण हुआ ? समाधान : ऐसा कहा जाता है कि इसके पाठों में और चन्द्रप्रज्ञप्ति के पाठों में प्रायः साम्य है। अतः पूर्वाचार्यों ने ही इसे परस्पर पाठानुसंधान द्वारा वर्तमान रूप दिया है। प्रश्न २. वर्तमान सूर्यप्रज्ञप्ति के मूलपाठों में अब भी पाठान्तर क्यों है ? यह स्थिति इस संस्करण से पूर्व प्रकाशित 'सूर्यप्रज्ञप्ति' ग्रन्थों से मिलाने से स्पष्टतः प्रतीत हो जाती है। जैसे प्रारम्भ में 'वीरस्तुति' नहीं दी है। कहीं गद्यपाठ में कुछ अंश त्याग दिये हैं तो यत्र-तत्र पाठगत शब्दों में व्यत्यय भी हुआ है, आदि। समाधान : सम्भवत: यह इस इसलिये किया गया होगा कि सम्पादक-वर्ग को ऐसी अन्य पाण्डुलिपियों उपलब्ध हुई हों। साथ ही उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री के शब्दों में यह भी संभव है कि जैन आगम 'शब्द' की अपेक्षा अर्थ को अधिक महत्त्व देते हैं। वेदों की तरह शब्दवादी नहीं है। अतः ऐसा पाठ भेद हुआ होगा। एक यह भी कारण हो सकता है कि स्थविरों के द्वारा संग्रह होने के पश्चात् इनकी जो भिन्न-भिन्न कालों में वाचनाएँ हुई हैं, उनमें वैसी व्यवस्था हुई हो। प्रश्न ३. इस ग्रन्थ में एक और महत्त्वपूर्ण प्रश्न है नक्षत्र-भोजन में मांसादि के भोजन का? यह जैनधर्म के सर्वथा प्रतिकूल कथन इसमें कैसे आया ? समाधान : इस संबंध में भिन्न-भिन्न समाधान प्राप्त होते हैं । यथा -
१. यह पाठ प्रक्षिप्त है। २. इस पाठ से पूर्व और भी कुछ पाठ था, जो विछिन्न हो गया। ३. इस संबंध में आगमप्रभाकर पुण्यविजयी का अभिमत था कि 'इसके पहले के कुछ वाक्य खण्डित हो गये हैं, जिनमें यह भगवान्
रा कथित न होकर किसी प्रश्न के उत्तर में उद्धरण के रूप में अन्य मतों का प्रदर्शन किया गया है। ४. अन्य आचार्यों का कथन है कि यहां प्रयुक्त 'मांस' शब्द का अर्थ प्राण्यङ्ग मांस नहीं है, अपितु यह अत्यन्त प्राचीन काल में प्रयुक्त होने वाले अर्थ 'वनस्पतिजनित फल मेवा' आदि के अर्थ में व्यवहृत है। इसी प्रकार मांस के पर्यायवाची अन्य शब्द 'पिशित, तरस्, पलल, क्रव्य और आमिष' शब्द भी प्राण्यङ्गजन्य मांस के सूचक न होकर अन्य अर्थों के ही सूचक हैं। अमरकोष के टीकाकार भानुजी दीक्षित ने जो धातप्रत्यय जनित शब्द की व्युत्पत्ति दी है, उससे 'पिशित-अवयववान, तरस-बलवान्, मांस-मानकारक, पलल-गमनकारक, क्रव्य-भयकारक अथवा गतिकारक और आमिष-किंचित् स्पर्धाकारक अथवा सेचन अर्थ का ही प्रतिपादन होता है। कोशकारों के अतिरिक्त आयुर्वेद के ग्रन्थों में भी ऐसे अनेक शब्दों को वनस्पतियों के अर्थों में ही प्रयुक्त किया है। ५. वेद, ब्राह्मण, उपनिषद् और अन्य संहिता ग्रन्थों में भी ऐसे मांसादि शब्दों के प्रयोग निर्विवादरूप से प्राण्यङ्गजनित मांस के लिये कदापि प्रयुक्त नहीं है । ६. तन्त्रग्रन्थों में भी यही स्थिति है। वहां ऐसे शब्दों को वस्तुतः आध्यात्मिक अर्थों में ही सूचित किया है किन्तु वामाचार के नाम पर जिह्वालोलुपवर्ग अपनी लिप्साओं १. यह बात उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्रीजी ने कही थी, जबकि उन्होंने इसके लिये स्वयं आगमप्रभाकरजी से पूछा था।
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