Book Title: Suryaprajnapti Chandraprajnapti
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम प्राभृत- प्रथम प्राभृतप्राभृत ]
दसमे पाहुडे बावीसं पाहुड - पाहुडाणं विसयपरूवणं ७. गाहाओ - १. आवलिय, २. मुहुत्तग्गो, ५. कुलाई, ६. पुण्णमासी य, ९. तारग्गं च, १०. नेता य
१८. आइच्चचार,
२१. जोइस्स य, दाराई,
दसमे
पाहुडे
एए,
'मासस्स' मुहुत्ताणं वद्धोऽवद्धी
३. एवं भागा य,
देवता य अज्झयणे,
१४. दिवसा - राइवुत्ता य, १५. तिहि, १६.
१९. मासा य,
१.
४. जोगस्स ।
[ ५
७. सन्निवाए य
८. संठिई ॥ १ ॥
११. चंदमग्गत्ति, १२. यावरे । १३. मुहुत्ताणं नामाइ य ॥ २ ॥ गोत्ता, १७. भोयणाणि य ।
२०. पंच संवच्छराइ य ॥ ३ ॥ २२. नक्खत्ता विजये वि य ।
बावीसं
पाहुड- पाहुडा ॥ ४॥
८. ता कहं ते वद्धोऽवद्धी मुहुत्ताणं आहिए त्ति, वदेज्जा ?
ता अट्ठ एगूणवीसे मुहुत्तसए सत्तावीसं च सट्टिभागे मुहुत्तस्स आहिए ति वदेज्जा । १ सव्वसूरमंडलमग्गे सूरस्स गमणागमण-राइंदियप्पमाणं
(क) मुहूर्तो की हानि - वृद्धि का यह सूत्र यहां कैसे दिया गया है ? यह एक विचारणीय प्रश्न है ।
सूर्यप्रज्ञप्ति के प्रारम्भ में उत्थानिका के बाद बीस प्राभृतों के प्राथमिक विषयों की प्ररूपक पांच गाथाएँ हैं । उनमें से प्रथम गाथा में प्रथम प्राभृत के प्रथम प्राभृतप्राभृत की प्राथमिक विषयसूचक गाथा का 'कइ मंडलाई वच्चइ' यह प्रथम पद है। इसके अनुसार 'एक वर्ष में सूर्य कितने मंडलों में एक वार और कितने मंडलों में दो वार गति करता है।' यह विषय है । वृत्तिकार श्रीमलयगिरि उक्त पद की व्याख्या इस प्रकार करते हैं- 'प्रथमे प्राभृते - सूर्यो वर्षमध्ये कति मण्डलान्येकवारं, कति वा मण्डलानि द्विः कृत्वा व्रजतीत्येतन्निरूपणीयम् । किमुक्तं भवति ? एवं गौतमेन प्रश्ने कृते तदनन्तरं सर्वं तद्विषयं निर्वचनं प्रथमे प्राभृते वक्तव्यमिति ।' किन्तु प्रथम प्राभृत के आठ प्राभृतप्राभृतों की विषयप्ररूपक दो गाथाओं में से प्रथम गाथा के प्रथम पद में 'वड्ढोऽवड्ढी मुहुत्ताणं' यह पद है। इसके अनुसार प्रथम प्राभृत के प्रथम प्राभृतप्राभृत में प्रथम सूत्र में वृत्तिकार के अनुसार चार प्रकार के मासों के मुहूर्ती की हानि - वृद्धि का प्ररूपण है ।
वृत्तिकार श्रीमलयगिरि उक्त पद की व्याख्या इस प्रकार करते हैं- 'प्रथमस्य प्राभृतस्य सत्के प्रथमे प्राभृतप्राभृते मुहूर्तानां दिवस - रात्रिगतानां वृद्व्यपवृद्धी वक्तव्ये ।'
विषयप्ररूपक संग्रहणी गाथाओं की रचना के पूर्व एवं वृत्तिकार के पूर्व यह व्युत्क्रम हो गया है।
वृत्तिकार स्वयं उक्त व्युत्क्रम की उपेक्षा कर गए तो अन्य सामान्य श्रुतधरों का तो कहना ही क्या ? यह सूत्र क्रमानुसार कहां होना चाहिये, इस संबंध में आगे यथास्थान लिखने का संकल्प है।
(ख) मुहूर्तों की हानि - वृद्धि का यह सूत्र भी खण्डित प्रतीत होता है, क्योंकि प्रस्तुत सूत्र के प्रश्नसूत्र में मुहूर्तों की हानि - वृद्धि का प्रश्न है, किन्तु उत्तरसूत्र में केवल नक्षत्रमासों के मुहूर्तों का ही कथन है ।