Book Title: Suryaprajnapti Chandraprajnapti
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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दशम प्राभृत - इक्कीसवां प्राभृतप्राभृत ]
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७. भरणी।
२. तत्थ णं जे ते एवमाहंसु - (क) ता महादीया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तंजहा -
१. महा, २. पुव्वाफग्गुणी, ३. उत्तराफग्गुणी, ४. हत्थो, ५.चित्ता, ६. साती, ७. विसाहा, (ख) अणुराधादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तंजहा -
१. अणुराधा, २. जेट्ठा, ३. मूले, ४. पुव्वासाढा, ५. उत्तरासाढा, ६. अभीई, ७. सवणे, (ग). धणिट्ठादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तंजहा -
१. धणिट्ठा, २. सतभिसया, ३. पुव्वापोट्ठवया, ४. उत्तरापोट्ठवया, ५. रेवई, ६.अस्सिणी,
७. भरणी। (घ) कत्तियादीया सत्त णक्खत्ता उत्तरमदारिया पण्णत्ता, तंजहा -
१. कत्तिया, २. रोहिणी, ३. संठाणा, ४. अहा, ५. पुणवस्सू, ६. पुस्सो, ७. अस्सेसा।
३. तत्थ णं जे ते एवमाहंसु - • (क) धणिट्ठादीया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तंजहा -
१. धणिट्ठा, २. सतभियसा, ३. पुव्वापोट्ठवया, ४. उत्तरापोट्ठवया, ५. रेवई, ६.अस्सिणी,
७. भरणी। (ख) कत्तियादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तंजहा -
१. कत्तिया, २. रोहिणी, ३. संठाणा, ४. अद्दा, ५. पुणवस्सू, ६. पुस्सो, ७. अस्सेसा। (ग) महादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तंजहा -
१. महा, २. पुव्वाफग्गुणी, ३. उत्तराफग्गुणी, ४. हत्थो, ५.चित्ता, ६.साई, ७. विसाहा, (घ) अणुराधादीया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, तंजहा -
१.अणुराधा, २.जेट्ठा, ३. मूलो, ४. पुव्वासाढा, ५. उत्तरासाढा, ६. अभीयी,७. सवणो।
४. तत्थ णं जे ते एवमाहंसु - (क) ता अस्सिणी, आदीया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तंजहा -
१. अस्सिणी, २. भरणी, ३. कत्तिया ४. रोहिणी, ५. संठाणा, ६.अद्दा, ७. पुणव्वसू,
१. (क) कत्तियाईया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता,
(ख) महाईया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, (ग) अणुराहाईया सत्त णक्खत्ता अबरदारिया पण्णत्ता, (घ) धणिट्ठाइया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता,
- सम. स. ७, सु. ८, ९, १०, ११ ये समवायांग के जो सूत्र यहां दिये गये हैं वे अन्य मान्यता के सूचक हैं किन्तु इन सूत्रों में कोई ऐसा वाक्य नहीं है जिससे सामान्य पाठक इन सूत्रों को अन्य मान्यता के जान सके। यद्यपि जैनागमों में नक्षत्रमण्डल का प्रथम नक्षत्र अभिजित् है और अंतिम नक्षत्र उत्तरासाढा है, पर इसके अतिरिक्त भिन्न-भिन्न कालों में परिवर्तित नक्षत्रमण्डलों के भिन्न-भिन्न क्रमों का परिज्ञान आगमों के स्वाध्याय के बिना कैसे सम्भव हो?