Book Title: Suryaprajnapti Chandraprajnapti
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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इस तरह अट्ठाईस नक्ष्त्रों के भोजन का विषय जैसा अन्य स्थान में देखने में आया है वैसा ही लिखा है। टीकाकार श्री मलयगिरि आचार्य ने इसकी टीका नहीं की है। तत्त्व केवलिगम्य ।
आचार्य अमोलकऋषि जी म.
आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज द्वारा सम्पादित सूर्यप्रज्ञप्ति पा. १० अन्तरपाहुड - १७ पृ. २२० - २२३.
११. उपसंहार एवं र्तिव्य-बोध
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इन सब विवेचनों के द्वारा हम एक ही निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि 'विश्व को सर्वांश में सर्वज्ञ ही जानते हैं । बुद्धिजीवी जगत् इसकी समग्रता को पहचानने में सदैव अक्षम ही रहा है । दुर्विज्ञेय आधिभौतिक तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करने के लिये आधिदैविक और आध्यात्मिक भूमिकारूढ हुए बिना जीव-जगत की जिज्ञासा पूर्ण नहीं हो सकती। अलौकिक तत्त्वोपलब्धि अथवा सत्य का साक्षात्कार आगमों के द्वारा ही सम्भव है। यही कारण है कि विश्व विद्याओं के निधान आगमों का प्रत्येक अक्षर सभी के लिये बहुमान्य है । सर्वज्ञ की वाणी होने से उसका प्रत्येक अंश सत्य है, श्रद्धेय है और उपास्य है और साथ ही यह भी ध्यातव्य है कि 'आगम-साहित्य के वास्तविक तत्त्वों को समझने के उनके लिये मर्मज्ञ मनीषियों से पारम्परिक सम्प्रदायार्थ का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये, तभी हम कुछ जान सकते हैं। सूर्य - प्रज्ञपित भी एक ऐसा ही आगम ग्रन्थ है, जिसके रहस्यार्थ का परिज्ञान आधुनिक परिभाषाओं की अपेक्षा प्राचीन गाणितिक एवं खगोलीय परिभाषओं को समझे बिना तुष कुट्टन के समान ही निष्फल हो सकता है।
अन्त में मैं एक बात और कहना चाहता हूं कि भारतीय संस्कृति के इन अपूर्व-ग्रन्थ रत्नों के चिरन्तन सत्य के परिचायक तत्त्वों की खोज में विद्वान् गवेषकों एवं चिन्तकों को जैन, वैदिक और बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों का संयुक्त रूप से परिशीलन करना चाहिये, क्योंकि ये तीनों धाराएँ प्रारम्भ से ही एक ही लक्ष्य से बही है किन्तु वीच के साम्पातिक काल में कुछ तो स्वयं के दुराग्रहों से और कुछ पराये लोगों के बहकावे के कारण विश्रृंखलित हो गई हैं। जब तक परस्पर मिलकर एक-दूसरे की न्यूनताओं को पूर्ण नहीं किया जायेगा तब तक पूर्णता की प्राप्ति आकाश - पुष्प ही बनी रहेगी । अतः
यूयं यूयं वयमिह वयं सर्वदैवं बुवद्भिहन्ता हन्ताग्रह - निपतितै भ्रंशितं नैव किं किम् । सञ्चिन्त्यातः पुनरपि निजं स्वत्वमुद्धर्तुमार्या, यूयं ये ते वयामिति मिथः स्वात्मना संवदन्तु ॥
यही निवेदन है, कामना है और प्रार्थना है ॥ ॐ ॥
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