Book Title: Suryaprajnapti Chandraprajnapti
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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मतान्तरों का भी निर्देश हुआ है। चतुर्थ प्राभृत में – चन्द्र और सूर्य के १. विमान संस्थान तथा २. प्रकाशित क्षेत्र के संस्थान और उनके संबंध
उल्लेख है। यहीं स्वमत से प्रत्येक मंडल में उद्योत तथा ताप क्षेत्र का संस्थान बतलाकर अंधकार के क्षेत्र का निरूपण किया गया है। सूर्य के ऊर्ध्व, अधः एवं तिर्यक् ताप-क्षेत्र के परिमाण भी यहीं वर्णित हैं।
पाचवें प्राभृत में - सूर्य की लेश्याओं का वर्णन है। ___छठे प्राभृत में – सूर्य का ओज वर्णित है अर्थात् सूर्य सदा एक रूप में अवस्थित रहता है अथवा प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है ? इस संबंध में २५ प्रतिपत्तियां हैं । जैन दृष्टि से व्यक्त किया है कि जम्बूद्वीप में प्रतिवर्ष केवल ३० मुहूर्त तक सूर्य अवस्थित रहता है तथा शेष समय में अनवस्थित रहता है। क्योंकि प्रत्येक मंडल पर एक सूर्य ३० मुहूर्त रहता है। इसमें जिस-जिस मंडल पर वह रहता है, उस दृष्टि से वह अवस्थित है और दूसरे मंडल की दृष्टि से वह अनस्थित है, यह स्पष्ट किया है।
सातवें प्राभृत में – सूर्य अपने प्रकाश से मेरुपर्वतादि को ओर अन्य प्रदेशों को प्रकाशित करता है, यह बतलाया है।
आठवें प्राभत में - जो सर्य पर्व-दक्षिण में उदित होता है. वह मेरु के दक्षिण में स्थित भरतादि क्षेत्रों को प्रकाशित करता है और जो मेरु के पश्चिम-उत्तर में उदित होता है, वह मेरु के उत्तर में स्थित ऐरावतादि क्षेत्रों को प्रकाशित किया है इस प्रकार दो सूर्यों की सत्ता प्रतिपादित हुई है और इसी से दिन-रात्रि की व्यवस्था स्पष्ट की गई है। साथ ही भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की अपेक्षा उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल का कथन ही इसी प्राभूत में वर्णित है। "
नौवें प्राभृत में – पौरुषी छाया का प्रमाण बतलाते हुए सूर्य के उदयास्त के समय ५९ पुरुष-प्रमाण छाया होती है, यह बतलाया है और इस संबंध में अनेक मत-मतान्तरों का उल्लेख करते हुए स्वमतानुसार पौरुषी-छाया के संबंध में स्थापना की है।
दसवें प्राभत में - नक्षत्रों में आवलिका क्रम, मुहूर्त की संख्या, पूर्व-पश्चिम भाग तथा उभयभागों से चन्द्र के साथ योग करने वाले नक्षत्र, युगारम्भ में योग करने वाले नक्षत्रों का पूर्वादि विभाग, नक्षत्रों के कुल, उपकुल तथा कुलोपकुल, १२ पूर्णिमा और अमावस्याओं में नक्षत्रों के योग, समान नक्षत्रों के योग वाली पूर्णिमा तथा अमावस्या, नक्षत्रों के संस्थान, उनके तारे, वर्षा, हेमन्त और ग्रीष्म ऋतुओं में मासक्रम के नक्षत्रों का योग तथा पौरुषी प्रमाण, दक्षिण-उत्तर एवं उभयमार्ग से चन्द्र के साथ योग करने वाले नक्षत्र, नक्षत्र रहित चन्द्रमण्डल, सूर्यरहित चन्द्रमण्डल, नक्षत्रों के देवता, ३०मुहूर्तों के नाम, १५ दिन, रात्रि और तिथियों के नाम, नक्षत्रों के गोत्र, नक्षत्रों में भोजन का विधान, एक युग में चन्द्र तथा सूर्य के साथ नक्षत्रों का योग एवं संवत्सर के महीने और उनके लौकिक तथा लोकोत्तर नाम, पाँच प्रकार के संवत्सर, उनके ५-५ भेद और अन्तिम शनैश्चर-संवत्सर के २८ भेद, दो चन्द्र, नक्षत्रों के द्वार, दो सूर्य और उनके साथ योग करने वाले नक्षत्रों के मुहूर्त परिमाण, नक्षत्रों की सीमा तथा विष्कम्भ आदि का प्रतिपादन विस्तार के साथ इसके २२ उप-अध्यायों में हुआ है।
ग्यारहवें प्राभृत में – संवत्सरों के आदि, अन्त और नक्षत्रों के योग का वर्णन है।
बारहवें प्राभृत में - नक्षत्र, चन्द्र, ऋतु, आदित्य और अभिवर्धित ५ संवत्सरों का वर्णन, छह ऋतुओं का प्रमाण,६-६ क्षमाधिक तिथियां, एक युग में सूर्य और चन्द्र की आवृत्तियां और उस समय नक्षत्रों के योग और योग काल आदि का वर्णन है।
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