Book Title: Suryaprajnapti Chandraprajnapti
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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है। वेदों में सूर्य को 'प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः, विभ्राट, बृहत्, विश्वाय, दृशे सूर्यम, सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च,'
और 'आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यश्च। हिरण्ययेन सविता रथन देवो याति भुवनानि पश्यन्' इत्यादि अनेक मंत्रों से विविध रूप में व्यक्त किया है। सर्वाराध्य गायत्री मंत्र में भी सवित् देवता की ही महिमा और प्रार्थना है। सूर्य के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी अनेक विवेचन वैदिक मंत्रों में अभिव्यक्त हैं, जिनके भाष्यों में आचार्यों ने सूक्ष्मातिसूक्ष्म परीक्षणात्मक प्रयोगों के निर्देश भी दिये हैं।
सूर्य सप्ताश्व रथ में स्थित हो कर जगत् को प्रकाशित करता है। ऋगवेद में 'सप्त युञ्जन्ति रथमेकचक्रं ' कहते हुए जगत् को सप्त वर्गी ही बताया है । ये सात वर्ग - पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, दिक् और काल हैं । सौर-परिवार के नौ सदस्य नवग्रह हैं । सूर्य आदि ग्रहों के बिम्बों का व्यास, गति, युति, ग्रहण आदि के वर्णन पुराणों तथा ज्योतिष के ग्रन्थों में व्यापक रूप से आये हैं। 'वृद्ध गर्गसंहिता' में 'महासलिलाध्याय' के उत्तरार्ध में 'ग्रहकोषाध्याय, नक्षत्रकर्मगणाध्याय' आदि में वैज्ञानिक विषयों का विस्तृत वर्णन भी दर्शनीय है। इस प्रकार सूर्य की अखण्ड सत्ता सनातन धर्म ग्रन्थों में भी विस्तार से स्वीकृत है।
ऐसी ही सूर्य की सार्वत्रिक महिमा को वैज्ञानिक दृष्टि से समन्वित चिन्तन-प्रधान असाधारण विवेचना के द्वारा व्यक्त करने वाला एक महान ग्रन्थ 'सूर्य-प्रज्ञप्ति' है। जिसका परिचय इस प्रकार है - ७. सूर्य-प्रज्ञप्ति का आगम साहित्य में स्थान
जैन आगम-साहित्य प्राचीनतम वर्गीकरण के अनुसार पूर्व' और 'अंग' के रूप में वर्गीकृत हुआ था जिसे श्रमण भगवान महावीर से पूर्ववर्ती बतलाया है। इसके पश्चात् 'पूर्वश्रुत' को सरल रूप में ग्रथित कर उसमें 'दृष्टिवाद' को सम्मिलित करने से आचारादि ग्यारह अंगों को 'द्वादशांगी' कहा गया। आचारांग आदि के प्ररूपक महावीर की श्रुतराशि 'चौदह पूर्व' अथवा 'दृष्टिवाद' के नाम से पहचानी जाती थी। इसका वर्गीकरण 'अंगप्रविष्ट' और 'अंगबाह्य' ऐसे दो भागों में किया गया। इनमें प्रथम 'गणधर द्वारा सूत्र में निर्मित' और द्वितीय स्थविरकृत समाविष्ट हैं । इनके अतिरिक्त एक और सूक्ष्म विवेचन करते हुए नन्दीसूत्र में 'आवश्यक, आवश्यक-व्यतिरिक्त, कालिक और उत्कालिक' रूप में आगम की सम्पूर्ण शाखओं का परिचय दिया गया है। इनके अतिरिक्त दिगम्बर मान्यताओं के अनुसार 'अंगप्रविष्ट' आगमों का एक
एवाद के १. परिकर्म, २. सूत्र, ३. प्रथमानुयोग,४. पूर्वगत एवं ५. चूलिका के रूप में हुआ है। श्री आर्यरक्षित ने आगमों को अनुयोगों के अनुसार चार भागों में विभाजित किया जिनके '१. चरण-करणानुयोग, २. धर्मकथानुयोग, ३. गणितानुयो तथा ४. द्रव्भानुयोग' ये नाम दिये हैं। इन्हीं ने व्याख्याक्रम की दृष्टि से १. अपृथक्त्वानुयोग और २. पृथक्त्वानुयोग के रूप में आगमों के दो रूप भी बतलाये। इन सब के अतिरिक्त नन्दीसूत्र की चूर्णि में एक दृष्टि और उद्घाटित हुई जिसमें द्वादशांगी को 'श्रुत पुरुष' के अंगों की संज्ञा से अभिहित किया गया। साथ ही द्वादश उपांगों का भी विनियोग हुआ और प्रत्येक अंग के साथ एक-एक उपांग (अंगों में कहे गये अर्थों का स्पष्ट बोध कराने वाला सूत्र) भी निर्धारित हुए।
इन और ऐसे ही अन्य भेदों में श्रुतस्थविर-विरचित 'सूर्य-प्रज्ञप्ति' सूत्र क्रमशः अंग, दृष्टिवाद, अंगबाह्य, आवश्यक व्यतिरिक्त में उत्कालिक, दृष्टिवाद का प्रथम भेद परिकर्म, गणितानुयोग, पृथक्त्वानुयोग और श्रुतपुरुष के ज्ञाताधर्मकथांग के उपांग में अपना स्थान रखती है। बत्तीस आगमों के क्रम में यह उपांगगत २२वीं संख्या पर है। कुछ ग्रन्थों में इसे पाँचवां और कहीं छठा उपांग बतलाया गया है। ८. सूर्य-प्रज्ञप्ति का स्वरूपात्मक परिचय
जैन-आगम वाङ्मय में 'सूर्य और ज्योतिष्कचक्र' का व्यवस्थित दिग्दर्शन कराने वाला यह उपांग ग्रन्थ मुख्यतः ज्ञान एवं विज्ञान की संक्लिष्ट पद्धति से विचारों को व्यक्त करता है। गणित और ज्योतिष की महत्त्वपूर्ण विवेचना इसमें
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