Book Title: Suryaprajnapti Chandraprajnapti
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
जम्बूद्वीप में लवणसमुद्र में
धातकीखण्ड में
कालोदधिसमुद्र में अर्ध - पुष्कर द्वीप में
मनुष्यलोक के सूर्य-चन्द्र
२ सूर्य ४ सूर्य
१३२ सूर्य
इन सूर्य-चन्द्रों के संबंध में अन्य ज्ञातव्य इस प्रकार है
१२ सूर्य
४२ सूर्य
७२ सूर्य
१. अस्थिर (परिभ्रमणशील)
२. इनके विमान की पीठिका अर्ध कोष्ठकाकार
३. चन्द्र विमान ५६ / ६२ योजन (लम्बाई-चौड़ाई)
४. चन्द्र विमान की ऊँचाई २८/६१ योजन
मनुष्यलोक से बाहर के सूर्य-चन्द्र
१. स्थिर (परिभ्रमणरहित)
५. सूर्य विमान ४८ / ६१ योजन ( लम्बाई-चौड़ाई) ६. सूर्य विमान की ऊँचाई २४/६१ योजन।
२. चतुरस्र इष्टकाकार
३. चन्द्र विमान २८ / ६१ योजन (लम्बाई-चौड़ाई)
४. चन्द्र विमान की ऊँचाई १४/६१ योजन
५. सूर्य विमान २४/६१ योजन (लम्बाई-चौड़ाई)
६. सूर्य विमान की ऊँचाई २४ / ६१ योजन ।
111
२ चन्द्र
४ चन्द्र
१२ चन्द्र
४२ चन्द्र
७२ चन्द्र १३२ चन्द्र
जम्बूद्वीप में एक चन्द्र, एक सूर्य ४८ घण्टे में प्रत्येक मण्डल को पूर्ण करता है। जम्बूद्वीप में एक सूर्य दक्षिण दिशा में भरत क्षेत्र में होता है तब दूसरा सूर्य उत्तरदिशा में - ऐरवत क्षेत्र में रहता है। उसी समय एक चन्द्र पूर्व महा विदेह में होता है तब दूसरा चन्द्र पश्चिम महाविदेह में रहता है। जहाँ सूर्य होता है वहाँ दिन और जहाँ चन्द्र होता है वहाँ रात्रि होती है । अत: प्रत्येक क्षेत्र में जो सूर्य-चन्द्र आज दिखाई देते हैं, वे दूसरे दिन नहीं दिखाई देते । इस प्रकार सूर्य-चन्द्र का परिभ्रमण सतत चालू है। अढाई द्वीपवर्ती सभी सूर्य चन्द्र द्वीपवर्ती मेरु पर्वतों के चारों ओर सतत परिभ्रमण कर रहे हैं । इस प्रकार कुल १३२ सूर्य-चन्द्र अढाईद्वीपों के मध्यस्थ मेरु की परिक्रमा कर रहे हैं, वे दो विभाग में विभक्त ६६ - ६६ संख्या में रहते हैं और इनकी पंक्ति सदा एक साथ ही परिक्रमा करती है। सूर्य परिभ्रमण करते हुए जैसे-जैसे आगे बढ़ता है वैसे उस क्षेत्र में सूर्योदय कहलाता है और वह गति करता हुआ पिछले क्षेत्र में अन्तिम दिखाई देता है तब सूर्यास्त कहलाता है।
वस्तुतः जैन आगमों में वर्णित सूर्य-चन्द्रादि ज्योतिष्क देवों की विचारणा इतनी महत्त्वपूर्ण एवं सूक्ष्मता से परिपूर्ण है कि उसका वर्णन करना यहाँ संभव नहीं है। भगवतीसूत्र, जीवाभिगम, सूर्य - प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, ज्योतिष्करण्डक, क्षेत्रलोकप्रकाश, बृहत्संग्रहणी, क्षेत्रसमास (लघु एवं बृहत्) तथा त्रिलोकसारादि में यह विषय विस्तार से समझाया गया है।
इतना ही नहीं, अन्य धर्मों के प्रमुख ग्रन्थों में भी सूर्य की सर्वोपरि सत्ता को बहुत ही आदर के साथ सराहा गया
[ ३२ ]