Book Title: Suryaprajnapti Chandraprajnapti
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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५. १३ शतक, ४ उद्देशक। तथा अन्य सूत्रों में प्रासंगिक रूप से चर्चित विषयों का अध्ययन किया जाये तथा२. लोक के आकार-ज्ञान के लिये -
१. आचारांगसूत्र श्रुत १. अ. ८, उ. २ । द्रष्टव्य हैं।
लोक-विषयक विचारणा का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत है। जैन आगमों में लोक का अभिप्रेतार्थ 'रज्जु लोक' है, क्योंकि यह १४ विभागों में विभाजित है, अत: इसे 'चौदह रजु लोक' के नाम से भी पहचाना जाता है। वैसे वैदिकधर्मग्रन्थों में भी 'चौदह रज्जु लोक' की मान्यता एवं वर्णन मिलते हैं।
एक रज्जु लोक का प्रमाण - 'कोई देव एक हजार भार वाले लोहे के गोले को अपनी समग्र शक्तिपूर्वक आकाश से फैंके और वह लोह गोलक ६ माह, ६दिन, घड़ी, ६ पल में जितना क्षेत्र लांघ जाये उतना क्षेत्र एक रज्जु लोक कहलाता है।' चौदह रज्जु लोक का आकार दोनों पैर सीधे करके कटि के दोनों पाश्वों पर हाथ रख कर खड़े हुए पुरुष के समान है। आगम साहित्य में इसे लोक पुरुष की संज्ञा दी गई है। इसी में धर्मास्तिकायादि (काल द्रव्य, सहित) छह द्रव्य है।
लोक के बाहर जो आकाशास्तिकाय है, उसमें इन छह द्रव्यों के न होने से उसे 'अलोक' कहते हैं । अलोक का विस्तार लोक की अपेक्षा अनंत गुना विशाल है।
लोक के 'ऊर्ध्व', 'अधः' और 'तिर्यक ' ऐसे तीन भाग हैं। इनमें 'रत्नप्रभा' से नौ सो योजन ऊपर तथा नौ सो योजन नीचे इस प्रकार कुल अठारह सौ योजन मोटाई वाला, एक रज्जु चौड़ा ऐसा 'तिर्यक्लोक' है। वहाँ से नौ सौ योजन न्यून सात रज्जु प्रमाण 'अधोलोक' है और 'ऊर्ध्व लोक ' भी नौ सौ योजन न्यून सात रज्जु प्रमाण है।
संक्षेप में यह लोक का सामान्य परिचय है। विशेष ज्ञान के लिये गणितानुयोग का आद्योपान्त अवलोकन 'लोक प्रकाश', क्षेत्रसमास आदि दर्शनीय है। ६. सूर्य का आलोक और उसका स्वरूप
तिर्यक्लोक में जो प्रकाश व्याप्त है, वह सूर्यों के द्वारा ही प्राप्त है। मनुष्य लोक के अन्दर और बाहर के विभागों को प्रकाशित करने वाले सूर्य पृथक-पृथक हैं और इस दृष्टि से सूर्यों की अनेकता सिद्ध है। इस मध्य लोक के प्रकाशक
प. कहि णं भंते! लोगस्स आयाममझे पण्णते? उ. गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए, ओवासंतरस्स असंखेज्जइभागं एत्थ वां लोगस्स आयाममज्झे पण्णते। प्र. कहि णं भंते ! अहेलोगस्स आयाममण्झे पण्णते? उ. गोयमा! चउत्थीए पकप्पभाए पुढवीए, ओवासंतरस्स साइरेगं अद्धं ओगाहिता, एत्थ णं अहेलोगस्स आयाममज्झे पण्णते। . प्र. कहिणं भंते उड्ढलोगस्स आयाममज्झे पण्णते? उ. गोयमा! उप्पिं सणंकुमार-माहिदाणं कपाणं हेठिंबंभलोए कप्पे रिठे विमाणपत्थडे एत्थ णं उड्ढलोगस्स आयाममज्झे पण्णते। प्र. कहिणं भंते! तिरियलोगस्स आयाममण्झे पण्णते?
उ. गोयमा! जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स बहुमज्झदेसभाए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेट्ठिल्लेसु खुडुगपयरेसु, एत्थणं तिरियलोयमण्झे अट्ठपएसिए रूयए पण्णते, जओ णं इमाओ दस दिसाओ पवहंति, तं जहा-पुरत्थिमा पुरथिमदाहिणा एवं जहा दसमसते जाव नामधेज त्ति
विया, स, १३ उ.४ सु १०-१५ 2. अत्थिलोए, णत्थिलोए, धुवेलोए, अधुवेलोए, सादिएलोए, अनाडियलोए सपज्जवसिए लोए अपज्जसिए लोए, सुकडे ति वा दुकडे ति वा कल्लाणे ति वा, पावए ति वा साधू ति वा असाधु ति वा सिद्धी ति वा असिद्धि ति वा निरए ति वा अनिरए ति वा।
भाषा. श्रु. ९ अ.८ उ.१ सु २००
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