Book Title: Suryaprajnapti Chandraprajnapti
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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वाला यह समस्त जगत् नवतत्त्वात्मक स्वरूप से सत् है। जिसकी किसी भी काल में, किसी से उत्पत्ति नहीं हुई और जिसका किसी भी काल में आमूल-सर्वथा विनाश भी नहीं है, ऐसे अनादि-अनन्त, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य परिणामी पांचों अस्तिकाय द्रव्यों में कालादि भेद से जो-जो चित्र-विचित्र पर्याय-परिणमन होते हैं, वे सभी 'स्वतः' और 'परतः सहेतुक होते हैं। अत: उनसे सम्बद्ध कार्य-कारणभाव का यथार्थ स्वरूप जानना आवश्यक है।
धर्मास्तिकायादि पदार्थ लोकाकाश रूप जगत् में ही व्याप्त हैं। इसी जगत् में जीवों की स्थिति है और जगत् के त जीवों को अनादिकाल से सुख और शान्ति की अपेक्षा रहती ही आयी है। सख और शान्ति के लिये तडपते हए जीवों को सुख-शान्तिा का वास्तविक मार्ग बतलाने की दृष्टि से ही परम करुणामूर्ति अरिहंत तीर्थंकर धर्मतीर्थ की प्ररूपणा करते हुए कहते हैं कि 'जिन आत्माओं को सुख और शान्ति की अभिलाषा हो, उन्हें अपनी आत्मा से मोक्षाभिलाषरूप संवेगभाव तथा सांसारिक सुख के प्रति अनासक्त भाव रूप निर्वेद प्रकट करना चाहिये, तभी वे सुख-शान्ति का अनुभव कर सकते हैं।' इसी लिये वाचकप्रवर श्री उमास्वाति ने भी संवेग-निर्वेद की उत्पत्ति का उपाय बतलाते हुए कहा है कि - जगत्-कायस्वभावौ च संवेग-वैराग्यार्थम् और उसी 'तत्त्वार्थसूत्र' में तथा 'नवतत्त्व' में आत्मा में संवरभाव प्रकट करने के लिये बारह भावनाओं के भावने की बात कही गई है। उसमें लोक-स्वभाव-भावना भी एक है। यह लोकस्वभाव-भावना तभी भावित कर सकता है जबकि उसे लोक का स्वरूप ज्ञात हो।
_ 'जगत' का अपर-पर्याय 'लोक' है। लोक का अर्थ दृश्यादृश्य 'क्षेत्र' भी होता है। अतः धर्मास्ति-कायादि द्रव्य जिस आकाश में विलसित हो रहे हैं, उस क्षेत्र को भी 'लोक' कहते हैं। इसी लोकस्वरूप-परिज्ञान करने की आज्ञा जैनागम तथा अन्य शास्त्रों में दी गई है। 'आचाराङ्ग-सूत्र' में कहा गया है -
"विदित्ता लोगं वंता लोगसण्णं से मइमं परिक्कमेजासि। इसके अनुसार लोकविषयक ज्ञान के अनन्तर ही विषयासक्ति में त्याग के पराक्रम निर्दिष्ट हैं। इस प्रकार -
___ 'द्वीप-समुद्र-पर्वत-क्षेत्र-सरित-प्रभृति-विशेषः सम्यक् सकल-नैगमादि-नयेन ज्योतिषां प्रवचनमलसत्रैर्जन्य-मानेन कथमपि भावविदभिः सदभिः स्वयं पर्वापरशास्त्रार्थ-पर्यालोचनेन प्रवचन-पदार्थविदपासनेन चाभियोगादि-विशेषविशेषेण वा प्रपंचेन परिवेद्य इति। कथन द्वारा श्लोकवार्तिकार ने भी लोक-विषयक सभी पदार्थों के ज्ञान करने का आग्रह किया है। वस्तुत: आन्तरिक सत्ता के ज्ञान के साथ बाह्य-सत्ता का ज्ञान भी आवश्यक माना गया है। इसीलिये जैन और अन्यान्य सभी धर्मानुयायियों के प्रमाणभूत आगमादि ग्रन्थों में 'सृष्टि-विज्ञान' को धर्मचर्चा के रूप में प्रस्तुत करते हुए मान्यता दी गई है। साथ ही विज्ञान को सर्वज्ञ जिनेश्वर-प्ररूपित होने के कारण इसे मोक्ष के प्रमुख साधनभूत धर्म के चार भेदों के अन्तर्गत 'धर्मध्यान' नामक भेद में लोक के स्वभाव और आकार एवं उसमें स्थित विविध द्वीपादि, क्षेत्र तथा समुद्रादि के स्वरूप-चिन्तन में मनोयोग संस्थान-विचय' नामक धर्मध्यान होता है – ऐसा कहा गया है। इस प्रकार की लोक-भावना करते हुए आत्मा संस्थान-विचय' नामक धर्मध्यान में पहुँचने से अपने कर्मों का नाश कर शुक्लध्यान में पहुँचता है और क्षपक श्रेणी में आजाने से अष्टकर्म क्षय करके अपनी आत्मा को शाश्वत सुख का भागी बनाता है। ऐसे अनेक तथ्यों के कारण ही लोक की स्थिति और विस्तार' आदि की मीमांसा जैन आगमों में पर्याप्त विस्तार
उत्त. अ. २८, गा. १४
१. जीवाजीवा य बंधो य पुण्ण-पावासवा तहा।
संवरो निजरा मोक्खोसंतेए तहिया नव॥ १४ ॥ आचारांगसूत्र - श्रुत. १, अ.३, उ. १, सू. २५.
तत्त्वार्थसूत्र ३/७० पर श्लोकवार्तिक. ४. ज्ञानार्णव ३४/४-८ तथा हैमयोगशास्त्र ७/१०-१२.
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