Book Title: Suryaprajnapti Chandraprajnapti
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
को जन्म दिया वहीं उनके सूक्ष्म रूप से 'मन-आत्मवाद, इन्द्रियात्मवाद (एकेन्द्रियात्मवाद तथा समूहात्मवाद), प्राणात्मवाद, पुत्रात्मवाद, अर्थात्मवाद' के सिद्धान्त भी उभर आये। इसी प्रकार वैदिक-विचारकों में वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसा एवं अद्वैत वेदान्त के द्वारा भी विभिन्न ऊहापोह-पूर्वक आत्मा की खोज में 'धर्म, चेतन, कर्म, देव, माया, ब्रह्म, जीव, जड़, पुरुष, प्रकृति' आदि अनेक तत्त्वों की साङ्गोपाङ्ग मीमांसा की गई।
जैन-दर्शन में 'अतति/गच्छति इति आत्मा' इस व्युत्पत्ति को लक्ष्य में रखकर, गमनार्थक धातु को ज्ञानार्थक भी .. मानने की व्याकरण-सम्मत व्यवस्था को स्वीकृत करते हुये यह व्याख्या प्रस्तुत की कि जो 'ज्ञान आदि गुणों में आसामन्तात् रहता है, अथवा उत्पाद, व्यय और धौव्यरूप त्रिक के साथ समग्र रूप में रहता है, वह आत्मा है।"
जैनदर्शनकारों ने आत्मा के संबंध में अनेक दृष्टियों से विचार किया है, इसीलिये जैनदर्शन का अपर नाम 'अनेकान्तदर्शन' भी प्रसिद्ध है। 'चैतन्यस्वरूप' यह आत्मा का मुख्य विशेषण है। जैन मतानुसार अन्य विशेषण इस प्रकार है -
'चैतन्यस्वरूपः परिणामी कर्ता साक्षाद् भोक्ता देहपरिमाणः प्रतिक्षेत्रं भिन्नः पौद्गलिकादृष्टवांश्चायम् । ३. आत्मा का पर्याय 'जीव' तथा उसका मौलिक विश्लेषण
जैनदर्शन का 'आत्मशास्त्र' अत्यन्त सूक्ष्म है। इसकी विचारणा सम्पूर्ण वैज्ञानिक है। विभिन्न दर्शनकार आत्मा का अस्तित्व तो मानते हैं किन्तु उनमें से कुछ आत्मा का 'अनेकत्व, नित्यत्व अथवा कर्तृत्व-मोक्षादि' नहीं मानते हैं किन्तु जैनदर्शन में आत्मा को नित्य और अविनाशी माना गया है। आत्मा के अस्तित्व के बारे में 'जीवो उवओगलक्खणो' सूत्र द्वारा वर्धमान महावीर ने उसकी पहचान का मार्ग दिखलाया है।
जैन शास्त्रकार आत्मा के पर्याय रूप में 'जीव' शब्द का प्रयोग करते हैं और वह जीवन, प्राणशक्ति एवं चेतना का द्योतक है। त्रैकालिक जीवन गुण से युक्त होने के कारण आत्मा की 'जीव' संज्ञा सार्थक है। 'जीवन' के आधार दशविध 'प्राण' बतलाये गये हैं। यह व्यवहार दृष्टि है। निश्चयदृष्टि से जिसमें 'चेतना' पाई जाए वह 'जीव' है। जीव का लक्षण जैनदर्शन के अनुसार 'उपयोग' है। उपयोग, चेतना का अनुविधायी परिणाम होता है। इसके 'ज्ञान' और 'दर्शन' नाम से दो भेद हैं तथा इन दोनों के धारक को 'जीव' कहते हैं । जीव में अचेतन पदार्थों की तरह 'प्रदेश' और 'अवयव' भी माने गये हैं, उसे इसी कारण 'अस्तिकाय' कहा गया है। " उसमें प्रतिक्षण परिणमन क्रिया होती रहती है, फिर भी वह अपने मूलरूप/गुण को नहीं छोड़ता। ये 'उत्पाद, व्यय और धौव्य' ये पर्याय उसमें सदा पाये जाते हैं। इन कारणों से जीव को
उत्त. अ. २८,गा.११
१. (क) नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा।
वीरियं उवओगो य एयं जीवस्स लक्खणं॥ (ख) बृहद् द्रव्यसंग्रह - ५७
प्रमाणनय-तत्त्वालोक, ७-५६ 3. क. उत्त. अ. २८, गा. १०
ख. उपयोगो लक्षणम् - तत्त्वार्थसूत्र अ. २, सू.८
तत्त्वार्थराजवार्तिक, १४७ 5. तत्त्वार्थराजवार्तिक, २८१ ६. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्। - तत्त्वार्थसूत्र अ.५, सू. २९
[ २४ ]