Book Title: Suryaprajnapti Chandraprajnapti
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रस्तावना (प्रथम संस्करण से)
डॉ. रुद्रदेव त्रिपाठी
साहित्य-सांख्य-योगदर्शनाचार्य, एम. ए. (संस्कृत एवं हिन्दी), पी-एच. डी., डी. लिट्.
निदेशक
ब्रजमोहन बिड़ला शोध केन्द्र, उज्जैन (म.प्र.) १. धर्मत्रिवेणी और उसका सर्वमान्य साहित्य
भारत के सिद्ध तपस्वी मन्त्रद्रष्टा महर्षि और महान् त्यागी-विरागियों द्वारा प्रदत्त ज्ञानपीयुष के कलश को सुरक्षित रखते हुए उसकी अमृत-बिन्दुओं को प्राणीमात्र के कल्याण के लिये वितरित करने वाले जैन, ब्राह्मण एवं बौद्धाचार्यों ने जिस धार्मिक / सर्वमान्य साहित्य को पुरस्कृत किया, उसकी समता विश्व के समक्ष किसी अन्य साहित्य में उपलब्ध नहीं होती है। जैन आगम, ब्राह्मण-वेद तथा बौद्ध पिटक' के रूप में व्याप्त दिव्य-प्रकाश की किरणों से जन-जन के अन्तर को उज्जवल बनाने वाले इस सर्वमान्य साहित्य का हमारे पूर्वाचार्यों ने विशुद्ध भाव से लोक कल्याण की भावना से ही उपदिष्ट किया था, यही कारण है कि यह सुदीर्घ काल से पूर्ण श्रद्धा के साथ समाज में आत्मसात् हुआ है, हो रहा है और चिरकाल तक होता रहेगा। धर्म के सनातन-सत्यों की समष्टि को चिर-स्थिर रखने वाला यह साहित्य भारत को गौरव प्रदान कराता है, मानव-मात्र को सत्य के दर्शन की प्रेरणा देता है, समुचित मार्ग का निर्देश करता है, कर्तव्याकर्तव्य का विवेक सिखाता है और सांसारिक-प्रपंचों से मुक्त होकर मोक्ष-पथ का पथिक बनने के लक्ष्य तक पहुंचाता है। २. एक लक्ष्य 'मोक्ष-प्राप्ति' और उसके क्रमिक सन्दर्भ
भाषा, भाव, कथन की विविधता, वक्ता की और द्रष्टा की भिन्नता एवं श्रोता-संग्रहकर्ता आदि की अनेकता के रहते हुए भी 'आगम, वेद अथवा त्रिपिटकों के आन्तरिक उपदेशों में ऐक्य नितान्त सुसिद्ध है। समान तात्त्विक सिद्धान्तों के हार्दतत्त्व - १. कर्म-विपाक, २. संसार-बन्धन और ३. मुक्ति, मुख्यतः एक ही ध्येय की पूर्ति करते हैं, वह है - सर्वकर्मों का क्षय करके मोक्ष की प्राप्ति । मोक्ष किसका अपेक्षित है? यह प्रश्न मोक्ष-प्राप्ति के प्रसंग में सहज उठता है तो इसका सभी दर्शनकारों का एक ही उत्तर होता है 'आत्मा का'। इस उत्तर से 'आत्मा क्या है ?' यह प्रश्न उठना भी स्वाभाविक हो गया, तब सभी दर्शनकारों ने इस संबंध में अपनी-अपनी दृष्टि से 'आत्म-चिन्तन' की प्रक्रियाएँ प्रस्तुत की। इन प्रक्रियाओं के प्रस्तोताओं की भारतीय-वाङ्मय में एक सुदीर्घ परम्परा प्रवर्तित हुई और जैन, बौद्ध एवं वैदिक तथा इनके अवान्तर अनेक चिन्तकों ने अत्यन्त प्रौढ़ता एवं गम्भीरता के साथ वे उपस्थापित की। आस्तिक और नास्तिक जैसे परम्परा-पोषक भेदों की बहुलता के कारण चार्वाक ने जहां प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानकर 'भूतात्मवाद और देहात्मवाद'
१.
पुव्वकम्मखयाट्ठए इमं देहं ............।
- उत्त. अ. ६,गा. १३.
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