Book Title: Suryaprajnapti Chandraprajnapti
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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भी एक 'द्रव्य' माना गया है। जीव-द्रव्य अनन्त हैं। वे सभी अरूपी और चैतन्य गुण वाले होने से निरन्तर अपने-अपने बाह्य-आभ्यन्तर उभय परिणामों के कर्ता और भोक्ता बनते हैं तथा स्व-पर परिणामों के ज्ञाता भी हैं। जीवद्रव्य के अतिरिक्त अन्य चार 'अजीव-द्रव्य' भी हैं जो चैतन्य-रहित जडत्व-गुण से युक्त हैं। इनमें १. धर्मास्तिकाय' द्रव्य है, जो 'अरूपी' और 'गति-सहायक' गुण-धर्म वाला है। २. 'अधर्मास्तिकाय' द्रव्य भी अरूपी एवं स्थिति-सहायक गुण-धर्म वाला है। ३. लोकालोक प्रमाण 'आकाशस्तिकाय' द्रव्य भी अरूपी, अवकाश देने के गुण-धर्म वाला है। ४. 'पुद्गलास्तिकाय' द्रव्य स्कन्ध देश-प्रदेश और परमाणु स्वरूप से पूरण-गलन-स्वभाव वाला और वर्ण-गन्ध-रस और स्पर्शादि धर्म से युक्त होकर रूपी द्रव्य है। ४. जीव तथा अजीव द्रव्य रूप 'जगत्' और उसके ज्ञान की आवश्यकता
सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी श्री वीतराग जिनेश्वर ने समस्त जगत् को जीव और अजीव द्रव्यों का राशि रूप कहा है और यह भी प्ररूपित है कि यह जगत् अनादि, अनन्त तथा 'पंचास्तिकायमय' है। अत: जगत् में जो-जो द्रव्य दिखाई देते हैं
और विभिन्न स्वरूप में जीव द्रव्यों के भोग-उपभोग में आते हैं, वे सभी पुद्गलद्रव्य हैं तथा जड़ पुद्गल-द्रव्यों के चित्रविचित्र परिणामों के संयोग-वियोगादि में, जिस-जिस को भिन्न-भिन्न स्वरूप में सुख-दुःखादि का अनुभव होता है ये भिन्न-भिन्न जीव-द्रव्य हैं। क्योंकि जड़ द्रव्यों में सुख-दुःखादि की अनुभव रूप ज्ञान-चेतना नहीं होती। इसलिये जैन दृष्टि से समस्त जगत् जीव और अजीव ऐसे दो पदार्थों में विभक्त है और अजीव के विविध परिणमनरूप में प्रत्यक्ष दिखाई देने १. प. कइ णं भंते १ अत्थिकाया पण्णत्ता ?
उ. गोयमा १ पंच अस्थिकाया पण्णत्ता, तं जहा - १. धम्मत्थिकाए, २. अधम्मत्थिकाए,
३. आगासत्थिकाए, ४. जीवत्थिकाए, ५. पोग्गलत्थिकाए।
- विया. स. २, उ. १०, सु. १ यद्यपि जैन शासन में द्रव्य पांच ही है 'पंचास्तिकायो लोकः' यह सूत्र इसका प्रमाण है, तथापि कहीं-कहीं 'काल' को स्वतंत्र द्रव्य मानकर 'षड्द्रव्य' भी बतलाये गये हैं। दव्वाणं नामाई -
प. से किं तं दव्वणामे ? 3. दव्व-णामे छव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - १. धम्मत्थिकाए, २. अधम्मत्थिकाए,
३. आगासत्थिकाए, ४. जीवत्थिकाए,
५. पोग्गलत्थिकाए ६. अद्धासमए, अ। से तं दव्य-णामे।
- अणु. सु. २१८ तत्त्वार्थकार ने भी पांचवें अध्याय के ३० वें सूत्र में स्पष्ट लिखा है कि 'कालश्चेत्येके' अर्थात् कुछ आचार्य काल को भी स्वतंत्र द्रव्य मानते हैं। जबकि पंचद्रष्यावादी 'काल' को जीव और अजीव का पर्याय-स्वरूप मानते हैं। २. (क) दुवे रासी पण्णत्ता, तं जहा - १ जीवरासी य,
अजीवरासी य। - सम. सू. १४८ (ख) अस्थि जीवा, अत्थि अजीवा,
- उव. सु.५६ (ग) के अयं लोगे? जीवच्चेव, अजीवच्चेव । के अणंता लोगे? जीवच्चेव, अजीवच्चेव। के सासया लोगे? जीवच्चेव, अजीवच्चेव।
- ठाणं. अ. २, उ. ४, सू. ११४
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