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( सुखी होने का उपाय भाग - ३
का अध्ययन करता रहा हूँ उनके उपदेश का एक-एक शब्द जिनवाणी से मिलता है, उससे भी उनके प्रति मेरी श्रद्धा बहुत दृढ़ हुई है। वास्तविक बात तो यह है कि जिनवाणी के अध्ययन करने के लिये हम विल्कुल अंधे थे । “अत: इस पामर प्राणी पर तो पूज्य स्वामीजी का तीर्थंकर तुल्य उपकार है, जिसको यह आत्मा इस भव में तो क्या, भविष्य के भवों में भी नहीं भूल सकेगा।”
इसप्रकार जो कुछ भी गुरू उपदेश से प्राप्त हुआ और अपनी स्वयं की बुद्धि रूपी कसौटी से परखकर स्वानुभव द्वारा निर्णय में प्राप्त हुआ उसी का संक्षिप्त सार अपनी सीधीसादी भाषा में प्रस्तुत करने का यह प्रयास है।
यह पुनर्मुद्रित संस्करण, मात्र संशोधित और परिवर्धित संस्करण ही नहीं है अपितु प्रकाशन के पूर्व इसमें बहुत कुछ परिवर्तन किये गये हैं। प्रकाशन के पूर्व मैंने आदरणीय डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल से निवेदन किया कि वे इस भाग को एक बार आद्योपान्त पढ़कर आगम के आलोक में पुस्तक में यदि कोई विसंगति अथवा भूल हो तो मुझे संकेत करें ताकि मेरी स्वयं की भूल हो तो निकल जावे तथा इसका पुनर्मुद्रण विशेष प्रामाणित रूप का हो सके मुझे अत्यन्त प्रसन्नता है कि उन्होंने मेरा निवेदन स्वीकार कर, अपने अत्यन्त व्यस्त समय में से भी समय निकालकर आद्योपान्त पढ़कर संशोधित एवं परिवर्धन करने में अपना महत्वपूर्ण सहयोग दिया, इसके लिये मैं उनका अत्यन्त आभारी हूँ ।
इसप्रकार प्रस्तुत पुस्तक आत्मार्थी जीवों को यथार्थ मार्ग प्राप्त करने में कारण बनें इस भावना के साथ तथा मेरा उपयोग जीवन के अंतिमक्षण तक भी जिनवाणी की शरण में ही बना रहे एवं उपर्युक्त यथार्थ मार्ग मेरे आत्मा में सदा जयवंत रहे इसी भावना के साथ विराम लेता हूँ ।
नेमीचन्द पाटनी
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