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अरहन्त की आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को समझना )
(५५ प्रकार से मेरे से प्रत्यक्ष भिन्न दिख रहे हैं। इसीप्रकार जीवन भर साथ में रहनेवाला यह मेरा शरीर भी अपनी योग्यतानुसार स्वतंत्र परिणमता रहता है, अनेक प्रकार की आज्ञाएँ करते हुए भी, कोई सफल नहीं होती क्योंकि वह भी स्वतंत्र सत्तावान पदार्थ है। लेकिन मेरी परिणति हमेशा इन्हीं में उलझी रहती है। इसलिए जब तक मेरी वृत्ति इन उलझनों से नहीं छूटेगी तब तक आत्मानुभव करने का मार्ग प्रारम्भ ही नहीं हो सकेगा आदि विचारों के द्वारा अपनी वृत्ति को उनकी ओर से समेटकर अन्तर्मुखी करना चाहिए।
यहाँ ध्यान रखने योग्य है कि उपरोक्त प्रकार के विचार (विकल्प) तो यह जीव अनन्त बार कर चुका एवं संसार, देह, भोगों से एवं परिवार तथा शरीरा से विरक्ति एवं उदासीनता आदि क्रियायें भी अनन्तबार करता रहा है। लेकिन अस्तिपक्ष का अर्थात् अपने त्रिकाली ज्ञायक सिद्ध स्वभावी ध्रुवतत्त्व में अपनापन आकर ज्ञेय मात्र के स्वतंत्र परिणमनों की श्रद्धा के आधार पर, परपना आकर, कर्तृत्व बुद्धि के अभावपूर्वक जो सहज उपेक्षा बुद्धि उत्पन्न हो जाती है ऐसा पुरुषार्थ कभी नहीं किया। जिसके फलस्वरूप वृत्ति (परिणति) सहज रूप से सिमटकर आत्मलक्ष्यी हो जाती है । वास्तव में ऐसे जीव का आत्मलक्ष्यी पुरुषार्थ आत्मानुभव के योग्य होता है। परज्ञेयों के प्रति परपने की मान्यता उत्पन्न हुए बिना मात्र परज्ञेयों से विरक्ति के भाव अथवा विकल्प भी आत्मलक्ष्यी पुरुषार्थ उत्पन्न नहीं कर सकते। ऐसी क्रिया से पुण्य बन्ध तो हो सकता है लेकिन मोक्षमार्ग में लाभकारी नहीं हो सकती, अपितु बाह्य क्रिया का अभिमान होकर, अपने को दूसरों से ऊँचा मानने लगे तो पाप बंध हो सकता है।
तात्पर्य यह है कि जब तक त्रिकाली ज्ञायक ध्रुवरूप अपने अस्तित्व की श्रद्धा जाग्रत नहीं हो और उसमें अहंपना नहीं आवे तब तक मात्र नास्तिपक्ष का निर्णय कार्यकारी नहीं होगा। अपने ध्रुव की श्रद्धा द्वारा वृत्ति सहज रूप से पर की ओर से सिमटकर आत्मलक्ष्यी हो जाती है।
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