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( सुखी होने का उपाय भाग-३ अंश भी नहीं है। लेकिन दृष्टि तो सबको भेदती हुई स्वभाव को पकड़ लेती है। ऐसा विश्वास करने के लिए पानी को ठंडा नहीं करना पड़ता।
इसी प्रकार वर्तमान दृष्टि से तो आत्मा रागी-द्वेषी दिख रहा है। लेकिन उबलते पानी के समान आत्मा रागी-द्वेषी बना रहने पर भी, भेदकदृष्टि निश्चितरूप से ध्रुव ज्ञानामंद वीतराग स्वभावी आत्मा को, पकड़ सकती है। यथार्थ दृष्टि प्रगट करे बिना, तो आत्मा रागी-द्वेषी ही दीखता रहेगा और आत्मोपलब्धि संभव नहीं होगी। तात्पर्य यह है कि आत्मा ज्ञानानंद स्वभावी है ऐसा विश्वास में तो आ सकता है, लेकिन सीधा ज्ञान का विषय बनाना चाहे तो यह संभव नहीं होगा। दृष्टि में ही यह सामर्थ्य है कि वर्तमान को भेद करके भी त्रिकाली को दृष्टि में पकड़कर उसमें अहंपना, स्थापित कर सकती है । पर्याय गौण हुये बिना ध्रुव स्वभावी आत्मा को विषय बनाना चाहे तो असंभव है मात्र प्रतीति, श्रद्धा, विश्वास में आता है । इसलिए प्रथम भेदकदृष्टि ही स्वभाव को पहिचान कर, उसमें अहंपना स्थापित करती है तब ही पर्याय में वीतरागी होने की प्रक्रिया प्रारंभ होगी एवं ज्ञान में भी अरहंत जैसा आत्मा दीखने लगेगा।
इसके पूर्व तो नयज्ञान के माध्यम से ही आत्मा के वर्तमान स्वरूप को एवं स्थाई स्वरूप को समझना पड़ेगा। पश्चात् अपनी श्रद्धा में यथार्थ स्वरूप प्रगट कर, उसमें अहंपना स्थापित करना पड़ेगा इसमें किसी प्रकार की शंका द्वारा पुरुषार्थहीन होने का अवकाश नहीं है । आत्मा की रागी-द्वेषी दशा बनी रहते हुए भी, मेरी दृष्टि इस दशा को भेदकर आत्मदर्शन कर सकती है, ऐसा उग्र पुरुषार्थ जाग्रत कर आत्मस्वरूप समझने का प्रयत्न करना चाहिए।
निष्कर्ष उपरोक्त चर्चा से यह समझ में आता है, कि आत्मा का स्वभाव तो वीतरागी सर्वज्ञ एवं आनन्दस्वभावी है तथा जानना ज्ञान का स्वभाव है। जानने की प्रक्रिया भी स्व को जानते हुए, स्व में स्थित परज्ञेयों के आकारों
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