Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 3
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 106
________________ निश्चयनय एवं व्यवहारनय ) (१०५ “वहाँ वह कहता है कि श्रद्धान तो निश्चय का रखते हैं और प्रवृत्ति व्यवहाररूप रखते हैं - इस प्रकार हम दोनों को अंगीकार करते हैं।" __ “सो ऐसा भी नहीं बनता : क्योंकि निश्चय का निश्चयरूप और व्यवहार का व्यवहाररूप श्रद्धान करना योग्य है। एक ही का श्रद्धान होने से एकान्त मिथ्यात्व होता है। तथा प्रवृत्ति में नय का प्रयोजन ही नहीं है। प्रवृत्ति तो द्रव्य की परिणति है, वहाँ जिस द्रव्य की परिणति हो उसको उसी की प्ररूपित करे सो निश्चयनय, और उस ही को अन्य द्रव्य की प्ररूपित करे सो व्यवहारनय, ऐसे अभिप्रायानुसार प्ररूपण से उस प्रवृत्ति में दोनों नय बनते हैं, कुछ प्रवृत्ति ही तो नयरूप है नहीं। इसलिये इस प्रकार भी दोनों नयों का ग्रहण मानना मिथ्या है।” इसप्रकार पण्डितजी साहब ने निश्चय-व्यवहारनय एवं निश्चयव्यवहार मोक्षमार्ग दोनों को भिन्न-भिन्न समझाकर स्पष्टतापूर्वक मिथ्या मान्यताओं का निराकरण कर दिया। सबके निष्कर्ष रूप में पृष्ठ २५० से २५१ पर लिखते हैं कि - “निश्चयनय से जो निरूपण किया हो तो उसे तो सत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान अंगीकार करना और व्यवहारनय से जो निरूपण किया हो उसे असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान छोड़ना।" “जिनमार्ग में कहीं तो निश्चयनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे तो सत्यार्थ ऐसे ही है" ऐसा जानना। तथा कहीं व्यवहारनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे ऐसे है नहीं, निमित्तादि की अपेक्षा उपचार किया है” ऐसा जानना । इसप्रकार जानने का नाम ही दोनों नयों का ग्रहण है। तथा दोनों नयों के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानकर “ऐसे भी है, ऐसे भी है"- इसप्रकार भ्रमरूप प्रवर्तन से तो दोनों नयों का ग्रहण करना नहीं कहा है।" इसप्रकार पण्डितजी साहब ने अनेक आगम एवं तर्कादि के द्वारा स्पष्ट कर दिया है कि निश्चय-व्यवहार दोनों नय तो ज्ञान की पर्यायें हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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