Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 3
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 109
________________ ( सुखी होने का उपाय भाग- ३ उपर्युक्त विषयों में से जिससे " वीतरागता " प्राप्त हो वह ही मुख्य होने से निश्चय है, वही भूतार्थ है एवं उपादेय भी वही है। उसको जानने वाली ज्ञान की पर्याय वह निश्चयनय है। बाकी जो अपना प्रयोजन साधने में कार्यकारी न हो, फिर भी निश्चय को समझाने वाला हो वह व्यवहार है और उसको जानने वाले नय का नाम व्यवहारनय है। लेकिन साधना के लिये सब ही प्रकार का व्यवहारनय बाधक होने से अभूतार्थ है, असत्यार्थ है, एवं आश्रय करने योग्य नहीं है। इस अपेक्षा आगम के नयों को अध्यात्म का हेतु, पूरक सहायक आदि कहा गया है। व्यवहारनय को जिनवाणी में प्रयोजनभूत भी तो कहा १०८ ) प्रश्न गया है ? उत्तर आश्रय करने की अपेक्षा तो व्यवहारनय का जो भी विषय हो किसी प्रकार से भी प्रयोजनभूत नहीं है । निश्चयनय की विषयभूत वस्तु तो एकमात्र अभेद - अखंड ज्ञायकमात्र है । उस अभेद वस्तु को भेद करके समझाने के लिये तथा अनेक संयोगों व निमित्तों के साथ एकमेक जैसी ज्ञान में आती आत्मा को, भेदज्ञान द्वारा भिन्न करके निश्चयनय की विषयभूत वस्तु को समझाने के लिये, व्यवहारनय को प्रयोजनभूत भी बताया गया है। सारांश यह है कि आत्मार्थी को जैसे भी प्रतीति में आ सके उन सब उपायों से, निश्चयनय की विषयभूत वस्तु को समझाना ही व्यवहारनय का कार्य है । इस ही अपेक्षा से व्यवहार को निश्चय का प्रतिपादक एवं निश्चय को प्रतिपाद्य कहा गया है। लेकिन व्यवहारनय जैसी वस्तु को बताता है, वैसी ही मान लेवें तो वह उल्टा अकार्यकारी हो जावेगा । इसप्रकार निश्चयस्वरूप वस्तु को समझाने तक ही व्यवहार की सार्थकता है । --- लेकिन आत्मस्वरूप समझने के बाद, आत्मोपलब्धि के लिये तो निश्चयनय का विषय ही मात्र आश्रयभूत होने से उपादेय है, बाकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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