Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 3
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 126
________________ आत्मा अरहन्त सदृश कैसे ? ) (१२५ लेकिन क्रोध तो विभाव ही है । अज्ञानी को उससे विपरीत क्रोध के साथ प्रीति एवं ज्ञान के साथ अप्रीति होती हुई दिखती है। यही कारण है कि उसको उसी समय उत्पन्न होने वाली ज्ञान की उत्पत्ति नहीं दिखती। यही पर्यायदृष्टि है। यथार्थ समझ उत्पन्न होने पर, ज्ञान से प्रीति जाग्रत होकर, क्रोध के स्थान पर ज्ञान उत्पन्न होता हुआ दिखने लगेगा एवं आत्मा ज्ञानी ही दिखेगा, क्रोधी नहीं। तीसरा दृष्टिकोण यह है कि आत्मा के अन्दर अनंत गुण विद्यमान हैं, उनमें ही ज्ञान नाम की शक्ति है अत: ज्ञान की पर्याय जानने का कार्य करती हुई आत्मा में अनादि अनंत काल पर्यन्त अनवरत रूप से होती ही रहती है। इसी प्रकार यदि क्रोधादि भाव होने की शक्ति भी आत्मा में होती तो उसकी भी उसी तरह की पर्याय निरंतर होती रहनी चाहिये थी। लेकिन ऐसा नहीं होता। चारित्र गुण का यथार्थ कार्य तो स्वद्रव्य में लीन रहकर वीतरागता का उत्पादन करना है। लेकिन क्रोधादि का उत्पादन हो रहा है । अत: उत्पाद का कारण जानना चाहिये। रागादि की उत्पत्ति का कारण अज्ञानी आत्मा हर समय परज्ञेय के साथ एकत्व करता है, फलत: रागद्वेष की उत्पत्ति भी करता रहता है। इस प्रकार रागद्वेष अनादिकाल से चलता चला आ रहा है । इसी कारण आत्मा निरंतर रागद्वेषी ही दिखता है। ज्ञान की भी ऐसी कमजोरी है कि एक समय का परिणमन ज्ञान की पकड़ में नहीं आता। हमारा उपयोग ही असंख्य समय का है । जब ज्ञान एक ज्ञेय को छोड़कर अन्य ज्ञेय को विषय बना है तो उसमें असंख्य समय लग जाते हैं। इसलिए अज्ञानी जब भी आत्मा की ओर लक्ष्य करता है, तो अनवरत रूप से राग द्वेष की संतति चलते रहने से और आत्मा पर्यायदृष्टि होने से आत्मा रागी द्वेषी ही दिखता है। लेकिन त्रिकाली आत्मा तो कभी रागी द्वेषी होता नहीं। पर्याय हवंत को तो पर्याय ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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