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( सुखी होने का उपाय भाग-३ दिखती है। इस संबंध में समयसार गाथा ३४४ की टीका के अंतिम पैराग्राफ में अमृतचन्द्राचार्य महाराज ने कहा है कि -
“इसलिये ज्ञायकभाव (त्रिकालीभाव) सामान्य अपेक्षा से ज्ञान स्वभाव से अवस्थित होने पर भी, कर्म से उत्पन्न होते हुए मिथ्यात्वादि भावों के ज्ञान के समय, अनादिकाल से ज्ञेय और ज्ञान के भेदविज्ञान से शून्य होने से, पर को आत्मा के रूप में (अपने रूप में) जानता हुआ वह (ज्ञायक भाव-त्रिकाली भाव) विशेष अपेक्षा से (पर्याय की दृष्टि से) अज्ञानरूपज्ञान परिणाम (विकारी पर्याय) को करता है।"
यथार्थत: रागद्वेषादि भावों का उत्पादन, ज्ञेय-ज्ञायक की एकत्व बुद्धि के कारण पर्याय में ही होता रहता है। त्रिकाली भाव तो त्रिकाली होने से पर्याय से अछूता ही रह जाता है। मैं तो त्रिकाल स्थाई रहने वाला अनुभव में आ रहा हूँ। अत: मैं रागी द्वेषी नहीं हो सकता। फिर भी पर्याय द्रव्य में होने से ज्ञान में तो आती ही है, लेकिन अज्ञानी की श्रद्धा उसी समय मानने लगती है कि मैं रागी हो गया, लेकिन ज्ञान ने उसका भी ज्ञान कर लिया। लेकिन फिर भी अज्ञानी को आत्मा रागी द्वेषी दिखता है। यथार्थत: रागद्वेष का उत्पादक तो ज्ञेय-ज्ञायक के भेदविज्ञान का अभाव ही है ।
इसप्रकार यह श्रद्धा-बलवती हो जाती है कि मेरा आत्मा अरहंत के समान ही है और पर्याय में रागद्वेष है, उसका उत्पादक ज्ञेय ज्ञायक के भेदज्ञान का अभाव ही है। इन सभी कारणों से स्पष्ट है कि पर्याय की स्थिति का यथार्थ ज्ञान मेरी आत्मा को अरहंत जैसा मानने में बाधक नहीं हो सकता ।
अन्य अपेक्षा से भी विचार करें कि “जब वर्तमान ज्ञान की पर्याय में क्रोध का ज्ञान आता है, तो भेद ज्ञान की शून्यता के कारण मैं अपने आपको क्रोधी मानने लगता हूँ।” उस ही समय अगर मेरी ऐसी श्रद्धा जाग्रत हो जावे कि “मैं तो क्रोध करने वाला नहीं, वरन् क्रोध को जानने वाली ज्ञान पर्याय का करने वाला हूँ, तो अनुमान लगाइये कि
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