Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 3
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 128
________________ आत्मा अरहन्त सदृश कैसे ? ) (१२७ उस समय आत्मा क्रोधी दिखेगा या ज्ञान करने वाला दिखने लगेगा? उस समय भी क्रोध तो था। अत: स्पष्ट है कि क्रोध तो पर्याय में था। त्रिकाली जानन स्वभाव के ज्ञान में आते ही उसका अभाव ही विश्वास में आता है। इसप्रकार सब अपेक्षाओं से सिद्ध है कि “जाननस्वभाव ही आत्मा है अज्ञानी को भेद ज्ञान से शून्य होने से मात्र क्षणिक पर्याय में क्रोध उत्पन्न होता है, जो कि त्रिकाली से भिन्न है'। अत: आत्मा तो अरहंत समान ही है। निष्कर्ष उपर्युक्त सभी दृष्टिकोणों से स्पष्ट है कि एक समय की पर्याय जैसा “मैं न तो कभी था, न अभी हूँ और न कभी हो सकूँगा।" मैं तो वर्तमान में ही अरहंत जैसा ही हूँ। यह विश्वास में आना चाहिए कि मैं तो त्रिकाल रहने वाला चैतन्य तत्त्व हूँ और वह चेतन तत्त्व तो अरहंत जैसा ही है, साथ में वर्तने वाली एक समयवर्ती पर्याय का उत्पादक वह पर्याय ही है। क्योंकि वह एक समय का सत् है, मैं त्रिकालीसत् हूँ, मैं उसका उत्पादक नहीं हूँ। अत: वह मेरी नहीं है, मेरा उसके साथ कोई संबंध हो तो मात्र परज्ञेय रूप में जानना ही है। जिसप्रकार समस्त परज्ञेय ज्ञान के लिये उपेक्षित ज्ञेय हैं उसीप्रकार ये पर्याय भी है। मैं तो अरहंत जैसा ही हूँ। ऐसा निर्णय में आना चाहिये । उपसंहार प्रस्तुत पुस्तक भाग-३ का यह उपसंहार है । इस पुस्तक का विषय “आत्मज्ञता प्राप्त करने का उपाय यथार्थ निर्णय ही है" यह है। इसमें यह स्पष्ट करने की चेष्टा की गई है कि निर्णय का केन्द्र बिन्दु तो एकमात्र त्रिकाली ज्ञायक तत्त्व जो अरहंत के जैसा ही है, “वह मैं हूँ" ऐसा निर्णय में आना चाहिये । इसी को प्रवचनसार गाथा ८० के आधार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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