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आत्मा अरहन्त सदृश कैसे ? )
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भी आत्मस्वभाव जानने के सन्मुख नहीं हुई । उसको तो त्रिकाली आत्मा भी दिखाई नहीं देगा ।
भगवान् अरहंत सकल ज्ञेयों के ज्ञायक होते हुए भी उनके सम्मुख नहीं होते । आत्मानंद में ही तल्लीन रहते हैं। मेरे आत्मा का स्वभाव उनके जैसा ही होने से, मैं भी स्व-पर का ज्ञाता होकर तथा पर संबंधी ज्ञेयाकार ज्ञान में आने पर भी उनके प्रति परपने की श्रद्धा होने से आकर्षित नहीं होने पर अपनी भूमिकानुसार आत्मानन्द का उपभोग करता रह सकता हूँ । इसप्रकार मोह (मिथ्यात्व) का नाश हो सकता है । अरहंत जैसा मानने में पर्याय बाधक
प्रश्न अपनी आत्मा को वर्तमान में अरहंत जैसा मानने में रागी द्वेषी पर्याय बाधक लगती है। वर्तमान विकारी आत्मा को अरहंत समान मानने से तो स्वच्छन्दता का पोषण होगा निश्चयाभास हो जावेगा, ऐसा लगता है ?
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उत्तर - इस शंका के समाधान के लिए पूर्व में चर्चा कर चुके हैं। फिर भी पुन: संक्षेप में चर्चा करके समझेंगे ।
आत्मा नाम का पदार्थ तो अनंतगुणों का समुदाय रूप, एक द्रव्य है । उस द्रव्य का ही हर समय परिणमन होता है । इसको भी उमास्वामी महाराज ने “उत्पाद व्यय धौव्य युक्तं सत्” के द्वारा स्पष्ट किया है कि द्रव्य का हर समय उत्पाद होता है और द्रव्य का ही व्यय होते हुए भी एकरूप ध्रुवपना बना रहता है । द्रव्य अनंत गुणों का समुदाय रूप एक द्रव्य है अतः वे गुण भी अपना-अपना कार्य उसी द्रव्य में करते रहते हैं और उनके भिन्न-भिन्न कार्य हमारे अनुभव में भी आते हैं। जैसे अज्ञान दशा में क्रोध उत्पत्ति के काल में क्रोध का ज्ञान भी हो रहा है, तत्संबंधी आकुलता भी है, क्रोध मैंने किया ऐसी श्रद्धा भी है, उससे तन्मय हो जाता है ऐसा आचरण भी है आदि-आदि अनेक गुणों का कार्य एक ही समय होता हुआ अनुभव में आ रहा है । अतः हर समय द्रव्य के पलटने में अनंत गुणों का पलटना एक साथ ही होता हुआ अनुभव में आता है ।
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