Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 3
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 122
________________ आत्मा अरहन्त सदृश कैसे ? ) ( १२१ भगवान् अरहंत की पर्याय में जो स्वरूप वर्तमान में प्रगट है वही द्रव्य है, उसी में सभी गुण प्रगट हैं । जैसे सर्वज्ञता, वीतरागता, अकर्ता व आनन्द का भंडार आदि अनंत गुण प्रगट हैं । अतः वास्तविक आत्मा तो अरहंत की आत्मा ही है । मैं भी एक आत्मा हूँ, अतः मुझे विश्वास में जमना चाहिए कि मैं भी वर्तमान में ही अरहंत स्वभावी आत्मा हूँ । 1 प्रश्न 1 उत्तर 1 अरहंत की आत्मा के तो द्रव्य-पर्याय एक से हो गये अतः वे तो शुद्ध स्वर्ण के समान शुद्ध हैं । लेकिन मेरी आत्मा का द्रव्य तो अरहंत जैसा होते हुए भी पर्याय में तो उसकी प्रगटता नहीं है । यह बात सत्य है कि अरहंत का आत्मा तो द्रव्य पर्याय से शुद्ध है । लेकिन हमने तो अरहंत की आत्मा को दृष्टान्त रूप से प्रस्तुत किया था कि जिसको अभी अपने स्वरूप का ही ज्ञान नहीं है, उसको आत्मा के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान हो जावे । वर्तमान में रागादि है उनका अभाव कर, पर्याय में अरहंत जैसी वीतरागता प्रगट करनी है, ऐसी अंतर में भावना जागृत कर रागादि के नाश करने के उपाय की खोज प्रारंभ कर, उसको अपनाकर दर्शनमोह का नाश करे तो कार्यकारी होगा । उपर्युक्त कथन तो अपने स्वरूप की श्रद्धा कराने के लिए ही उपयोगी है I ― - अरहंत भगवान की आत्मा का ज्ञान, अपनी आत्मा की सन्मुखतापूर्वक स्वयं को जानने का कार्य करता है। ज्ञान का स्वभाव स्व पर प्रकाशक होने से ज्ञान में विद्यमान परसंबंधी ज्ञेयाकार, भी स्व के साथ जानने में तो आते हैं । साधक का ज्ञान भी अनेकांतपूर्वक स्व को स्व के रूप में परसंबंधी ज्ञेयाकारों को पर के रूप में जानता है। इस जानने की प्रक्रिया के साथ ही ज्ञान जिसको स्व जानता है श्रद्धागुण उसमें अहंपना स्थापित कर लेता है तो ज्ञान अनेकांत स्वभावी होने से परसंबंधी ज्ञेयाकारों में सहज रूप से परपना स्थापित हो जाता है । फलतः स्व में अपेक्षा बुद्धि एवं पर में उपेक्षाबुद्धि होना सहज स्वभाविक है। श्रद्धा ने ध्रुवतत्त्व को स्व के रूप में स्वीकार किया, तत्समय ही चरित्र गुण उस ही में तन्मय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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