Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 3
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 123
________________ १२२ ) ( सुखी होने का उपाय भाग- ३ होने लगता है । तत्समय ही आत्मा के अनन्त गुणों का स्वाद - अनुभव आत्मा को प्रगट हो जाता है। परज्ञेयों संबंधी ज्ञेयाकारों के प्रति उपेक्षा बुद्धि होने से उनके प्रति आकर्षण ही समाप्त हो जाता है, अतः जानने का उत्साह ही नहीं वर्तता फलतः उपयोग भी आत्मा में ही वर्तने को चेष्टित रहता है । निर्विकल्प होने पर ज्ञेय परिवर्तन ज्ञेयार्थ परिणमन नहीं होने से आकुलता एवं रागादि की उत्पत्ति के कारणों का अभाव होने लगता है । अरहंत भगवान की आत्मा उनका पूर्ण अभाव हो जाने से पूर्ण सुखी है । अरहंत भगवान् के ज्ञान का पूर्ण विकास हो जाने से, अपने आत्मा में तन्मयता के साथ तथा पर संबंधी ज्ञेयाकारों को तन्मयतारहित जान लिया । अत: नहीं जाना हुआ कुछ रहा ही नहीं; अतः वे परमसुखी हैं। इसप्रकार भगवान् अरहंत सर्वज्ञ, वीतरागी, परज्ञेयों के ज्ञायक होते हुए भी अकर्ता स्वभावी, निराकुलस्वभावी अनंत आनंद के भोक्ता हैं । इसप्रकार के विस्तार सहित अरहंत के स्वरूप को समझकर अपने आत्मा को भी अरहन्त जैसा ही समझना, उपर्युक्त कथन का तात्पर्य है । इसप्रकार अरहंत के द्रव्य, गुण, पर्याय के ज्ञान द्वारा अपने आत्मा का यथार्थ स्वरूप अरहंत जैसा ही है यह नि:संदेह, निःशंकतापूर्वक निर्णय में आ सकता है। अरहन्त जैसा आत्मा मानने का लाभ उपर्युक्त स्थिति में आत्मार्थी की रुचि का वेग स्वभाव के प्रति आकर्षित हो जाता है तो ज्ञान की पर्याय भी त्रिकाली ध्रुव को जानने के सन्मुख हो जाती है । तब उसके ज्ञान (स्वसंवेदन ज्ञान) श्रद्धान में आत्मा अरहंत जैसा ही दिखाई देगा (प्रतीति में आवेगा) अर्थात् अनुभव में आवेगा । उस समय पर्याय स्वतः गौण रह जावेगी। ऐसा आत्मार्थी ही यह कहने का अधिकारी है कि "मैं वर्तमान में अरहंत हूँ । ” जिस व्यक्ति को आत्मा के स्वभाव की श्रद्धा जाग्रत नहीं हुई हो तथा पर्याय जितना ही आत्मा को मान रखा हो यथार्थतः उसकी तो रुचि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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