Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 3
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 111
________________ ११०) ( सुखी होने का उपाय भाग-३ आत्मा अरहन्त सदृश कैसे ? मेरी आत्मा अरहंत के समान है प्रश्न - आप कहते हैं कि मेरी आत्मा अरहंत के समान है, लेकिन हम को तो ऐसा दीखता ही नहीं है, रागी-द्वेषी ही दीखता है ? उत्तर- ऐसा दिखना तो दृष्टि का दोष है। यथार्थत: आत्मा तो ऐसा नहीं है। आचार्य महाराज ने उपर्युक्त गाथा ८०की टीका में यह भी संकेत किया है कि - _ “जो वास्तव में अरहंत को द्रव्यरूप से, गुणरूप से, पर्यायरूप से जानता है वह वास्तव में अपने आत्मा को जानता है, क्योंकि दोनों में निश्चय से अन्तर नहीं है।” वास्तव में चेतना ही आत्मा का लक्षण है, चेतना अर्थात् जाननादेखना। इसप्रकार जहाँ कहीं भी आत्मा को पहिचानना हो-ढूढना हो तो ज्ञान के माध्यम से ही खोजना चाहिए। लेकिन अज्ञानी वास्तविक लक्षण को छोड़कर अपनी विकारी पर्याय को लक्षण बनाकर आत्मा को खोजता है, यही कारण है कि उसको आत्मा नहीं दिखता। वास्तव में अरहन्त के द्रव्य-गुण-पर्याय को समझने के प्रयास के समय अज्ञानी को अपनी मान्यता को एक तरफ करके, निष्पक्ष दृष्टि से समझना चाहिए। अनादि अनन्त आत्मा से अभिन्न होकर रहने वाले ऐसे चेतन लक्षण से समझे तब ही भगवान अरहन्त के जैसा आत्मा का स्वरूप समझ में आ सकेगा। आचार्यश्री ने गाथा में भी यही कहा है कि “जो भ्रग्रवान अरहन्त को द्रव्य रूप से, गुण रूप से, पर्याय रूप से जानता है वह वास्तव में अपने आत्मा को जानता है। क्योंकि दोनों में निश्चय से अन्तर नहीं है।" इसलिए हमको अरहन्त की आत्मा को तथा अपनी आत्मा को ऐसे लक्षण के द्वारा पहिचानना चाहिए जो दोनों के द्रव्य-गुण-पर्याय में मिले, ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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