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निश्चयनय एवं व्यवहारनय )
(१०७ श्लोक ५९८ निम्नप्रकार है -
व्यवहारः प्रतिषेध्यस्तस्य प्रतिषेध्कश्च परमार्थः ।
व्यवहारः प्रतिषेधः स एव निश्चयनयस्य वाच्यः स्यात् ।।
अर्थ – “व्यवहारनय प्रतिषेध्य (निषेध करने योग्य) है और निश्चयनय उसका प्रतिषेधक अर्थात् निषेध करने वाला है। अत: व्यवहार का प्रतिषेध करना ही निश्चयनय का वाच्य है।"
इसप्रकार व्यवहार के बिना निश्चय का प्रतिपादन भी नहीं होता इसलिए उसको निश्चय का प्रतिपादक भी कहा जाता है
और व्यवहार के निषेध बिना निश्चय की प्राप्ति भी नहीं होती। इसप्रकार यथार्थ वस्तु समझने के लिए व्यवहार आवश्यक भी है लेकिन साधना के लिए उसका आश्रय छोड़ना योग्य भी है। इस प्रकार व्यवहार निश्चय का प्रतिपादक भी है और निश्चय के द्वारा प्रतिषेध्य भी है । यथास्थान दोनों ही प्रयोजनभूत हैं ।
तत्वान्वेषण काल तक ही दोनों नय प्रयोजनभूत हैं ऐसा द्रव्यस्वभाव प्रकाशकनयचक्र की गाथा २६८ में कहा है -
तच्चाणेसणकाले समयं बुझेहि जुत्तिमग्गेण ।
णो आराहणसमये पच्चक्खो अणुहवो जह्मा ।। अर्थ - तत्वान्वेषण काल में ही आत्मा युक्तिमार्ग से अर्थात् निश्चय-व्यवहार नयों द्वारा जाना जाता है, परन्तु आत्मा की आराधना के समय विकल्प नहीं होते, क्योंकि उस समय तो आत्मा स्वयं प्रत्यक्ष ही
निश्चय व्यवहार प्रकरण का उपसंहार आगम के अर्थात् वस्तुस्वरूप को बतलाने वाले द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नय हैं। द्रव्यार्थिकनय का विषय एकमात्र त्रिकाली ध्रुवतत्त्व है। पर्यायार्थिकनय के विषय एक समय वाली पर्याय एवं उससे संबंधित निमित्तादि समस्त पदार्थ हैं। वे सब ज्ञेय मात्र हैं।
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