Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 3
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 83
________________ ८२) ( सुखी होने का उपाय भाग-३ कि हर एक अखंड द्रव्य अपने अनन्तगुणों की व्यक्तता को नवीन-नवीन रूपों के साथ उत्पाद करता हुआ हर समय प्रगट होता है और वह व्यक्तता उस समय का सत् हैं। सत् तो अहेतुक निरपेक्ष होता है। अत: अनंतगुणों की व्यक्तता जो भी जैसी भी उत्पन्न हुई है, अपने कारण से हुई है, वह सत् है। उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन कोई नहीं कर सकता । ऐसी ही अनादि अनंत वस्तु की व्यवस्था है । इस पर्यायस्वभाव एवं वस्तु व्यवस्था को समझकर ऐसी श्रद्धा जाग्रत होना चाहिए कि एक स्वज्ञेयतत्त्व के अतिरिक्त पर्याय कैसी भी हो एवं पर्याय के विषय भी कैसे हों सबका जैसा भी परिवर्तन हो रहा है, उनमें कुछ भी कर सकना तो संभव ही नहीं अपितु जानने का भी क्या प्रयोजन रह जाता है? इसप्रकार जानने के प्रति भी उत्साह नहीं रहना चाहिए। ऐसी श्रद्धा जाग्रत होने पर एवं पर्यायों के प्रति भी उपेक्षाभाव होकर परलक्ष्यीज्ञान से भी उत्साहनिवृत्ति हो जाती है और स्वज्ञेय की ओर का आकर्षण बढ़ जाता है। फलस्वरूप रागादि की उत्पत्ति का क्रमश: अभाव होता जाता है। तारतम्यता पूर्वक आत्मिक शांति बढ़ती जाती है । इसके विपरीत अज्ञानी अपनत्व एवं कर्तृत्वबुद्धि के अभिप्रायपूर्वक पर्यायों एवं पर्यायों के विषयभूत पदार्थों में किसी को अनुकूल मानकर रागबुद्धि और किसी को प्रतिकूल मानकर द्वेषबुद्धि कर लेता है, किसी को रखना किसी को छोड़ने का प्रयास करता रहता है। लेकिन वे सब तो अपने अपने समय के सत् हैं, उनकी सत्ता में किसी का हस्तक्षेप संभव ही नहीं हो सकता। फलत: असफलता को प्राप्त होता हुआ दुःखी-दुःखी बना रहता है । अत: सत् में परिवर्तन संभव ही नहीं है, ऐसा मानकर उपेक्षाबुद्धि प्रगट करने से वीतरागता की उत्पत्ति होती है। स्वच्छन्दता के लिये कोई अवकाश नहीं रहता। इसी विषय को अब गुण विशेष की अपेक्षा समझेंगे।जैसे चारित्रगुण की पर्याय का जिस समय क्रोध रूप उत्पाद हुआ वह उस समय का सत् है। उसकी उत्पत्ति का ज्ञान भी तत्समय ही हुआ। हर व्यक्ति क्रोध को दूर भी करना चाहता है। विचार करें कि जिस पर्याय को दूर करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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